अखवार के स्याह-सफ़ेद छठे पन्ने पर
कुछ obituary advertisement होते है
जहाँ कुछ मुस्कुराते ,कुछ गंभीर से चेहरे
छोटे-बड़े से बॉक्सों में पड़े रहते हैं
लगते तो ज़िंदा हैं ,मगर मुर्दे हैं , गड़े रहते हैं
वहाँ लिखी रहती हैं ,ढेर सारी सतही ,झूठी ,बेजान
निरर्थक सी बातें ,कुछ तो "बावजह" कुछ महज़ यूँही
उन जहर सी मीठी बातों का शतांश भर भी
कहा नहीं गया होगा उम्र भर में , कभी उनसे
पर आज तो संवेदना इस कदर उमड़ी है की
ढूंढ-ढूंढ कर किताबें और रिसाले दुनियाभर के
लिखा गया है इन शब्दों को इस कद्र करीने से के
शरमा जाए माननीय घड़ियाल जी भी ,अगर कहीं पढ़ ले इनको
पर मैं पाठक भी कहाँ कम हूँ इन so called लिखने वालों से
मैं अक्सर उन मुर्दों की उम्र का जोड़-घटा सा करता रहता हूँ
अपनी उम्र से उनकी उम्र का तुलन सा करता रहता हूँ
के मैं उस उम्र के कितने पास तक आ गया हूँ आज
और कहीं उनकी उम्र को भी पार तो नहीं कर गया हूँ आज
क्या मैं भाग्यशाली हूँ ? के आज भी ज़िंदा हूँ
या बस कुछ दिन और ,और फिर मुर्दा हो जाऊंगा
ये सोच के सिहर उठता हूँ, और कुछ कुछ शर्मिन्दा हूँ
फिर कभी सोचता हूँ की आखिरकार
क्यों ये विज्ञापन यहाँ छपवायें जाते होंगे
लविंग मेमोरी , unforgettable ,प्रार्थना सभा
वजह कोई प्यार है या कहीं कोई मजबूरी
या फिर कोई पारिवारिक/व्यवसायिक साज़िश जरूरी
या फिर अपने को महान दिखाने भर की कोशिश सी है
या फिर ये केवल अपनी जीत की घोषणा भर सी है
के देखो आखिर तुम चले ही गए ना और मैं ज़िंदा हूँ
उम्र भर जिस सरमाये पे इतराये से सीने से लगाए फिरते थे
लाख मांगने पर भी नहीं देते थे ,सांप से कुण्डलियाये फिरते थे
साथ नहीं ले जा पाए ना आखिर ?और आज , आज ये सब मेरा है
तुम्हारा दिन ढल चुका ,पर मेरा सवेरा है
तुम थे तो ये हैसियत कहाँ थी मेरी
तुम्हारे पैरों में पड़े रहना,बस नियति थी मेरी
भला हुआ तुम खुद ही मर गए वरना....
मैं मार देता तुमको, मेरी मजबूरी
अखवार के स्याह-सफ़ेद छठे पन्ने पर
कुछ obituary advertisement होते है
जहाँ कुछ मुस्कुराते और कुछ गंभीर से चेहरे
कुछ छोटे-बड़े से बॉक्सों में ,पड़े रहते हैं
लगते तो ज़िंदा से हैं ,मगर मुर्दे हैं , गड़े रहते हैं.
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