Thursday, April 16, 2020

बीज (kavita)


किसी गहरे
बहुत गहरे पाताल में हूँ शायद
कोई नहीं साथ मेरे
ना संगी , ना साथी , ना कोई बांधव

चहुँ ओर बस मिटटी है ,
और है घनघोर अँधेरा
दूर दूर तक ना रौशनी , 
नहीं कोई सवेरा
बस एक बूँद है जल की ,
बस भीग पाया है तन मेरा
अंतर को सींच सके, 
ऐसा कहाँ है कोई मेरा

अब तो आत्मा की शक्ति से जोर लगाना होगा
ऊपर को देख कर ही शीश उठाना होगा
कुछ तो फूटेगा मेरे अंतर से , 
जो होगा मेरा अपना
एक नयी सुबह का देखा है , 
अब मैंने सपना

एक अंगड़ाई ज़रा जोर से जो लगाई मैंने
वो सूर्य-किरण भी देखकर मुस्कुराई जैसे

हंसकर बोली- "आया ही गया लल्ला मेरा "

अब बोल क्या है मन में 
क्या है इरादा तेरा
हवा, बारिश, धूप ,कीट-पतंगें 
अब है तुझे सबसे खतरा
जीने का बस एक.... 
मरने के हैं बहाने सतरा

बीज बोला - "माँ ,हवा , धूप ,बारिश , कीट-पतंगें सबसे लडूंगा "

आया हूँ तो अपनी आखिरी सांस तक भिढ़ूँगा
पहले डराएंगे फिर दोस्त बन जाएंगे येसब
इनको भी तो चाहिए होगा ,
एक साथी चौकस

एक दिन ये हवा ,
मेरे ही पत्तो से छनकर बहेगी
बारिश मुझपर रुककर ,
आराम कर मोती बनेगी
ये धूप भी कुछ देर रोज़ अंगड़ाई लेगी ,
मेरी शाखों पर
ये रोज आएंगे जाएंगे पर मैं रहूंगा सदा ,
इस धरा पर

कमज़ोर का कहाँ कोई अपना इस जग में
साबित तो करना होगा खुद को इस रण में
हवा, धूप, बारिश नहीं तो पेड़ तो बन पाउँगा 
प्रकृति-संतुलन पूरा किया तो ही ,
कृष्ण-प्रिय कहाउंगा 

किसी गहरे
बहुत गहरे जहाँ में हूँ शायद
कोई नहीं पास मेरे
ना संगी ना साथी ना कोई बांधव।

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