मेरे बचपन में ,
यानी 70s के बच्चो के लिए गर्मियों की छुट्टियाँ और नानी का घर
एक बहुत ही ख़ास यादगार पल होते थे
मेरी नानी का घर दिल्ली में ही जमुनापार था
हर छुट्टियों में हम तीनो भाई-बहन और माँ कुछ दिन के लिए वहां जरूर जाते थे
त्रिनगर से वहाँ जाने के लिए पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन तक डीटीसी बस में
और उसके बाद 4 सीटर ओपन ऑटो में जाना पड़ता था
(ये ऑटो कुछ कुछ थाईलैंड वाले टुक-टुक के बोहोत ही मोटे हैवी वाले वर्ज़न होते थे
वैसे ये बस नाम के ही 4 सीटर थे ,लोग तो इसमें ठूस-ठूस के 15-20 बैठते थे )
ये ऑटो बहुत तेज़ आवाज़ करते थे जैसे कोई बुलडोज़र चल रहा हो
रास्ते में अंग्रेज़ो का बनाया एक बहुत ही विशाल जमुना नदी पर बना हुआ एक पुराना पुल पड़ता था
इस पुल को "लोहे का पुल " बोलते थे
ये पुल अंग्रेज़ों ने 1866 में बनवाया था
ये एक डबल डेकर पुल था
इसमें नीचे के फ्लोर पर रिक्शा,तांगा,बस और फोरसीटेर चलते थे
जबकि ऊपर वाले डेक से ट्रैन गुज़रती थी
ये पुल दिल्ली के इन दो बेमेल से हिस्सों (पुरानी दिल्ली और शाहदरा ) को आपस में जोड़ता था
और मुझे मेरी नानी के घर से
नानी का घर ग्राउंड फ्लोर के दो फ्लैट (आगे-पीछे वाले ) से मिलकर बना था
आगे और पीछे दोनों ओर 2 पार्क थे ,जो हमारे खेल के मैदान थे
हम सारे बच्चे दिनभर वहाँ खेला करते
पीछे वाले पार्क के एक कोने में बड़े मामा की एक छोटी सी दूकान भी थी
जहाँ से फ्री कॉपी और पेन मैं अक्सर लेता था
मेरी नानी डिट्टो 60s और 70s के दशक की हिंदी फ़िल्मी माँ की तरह थी
ममतामयी,निरीह ,हमेशा मीठा और बहुत ही धीरे से बोलने वाली,
मेहनती और हमेशा काम में लगी रहने वाली
रसोई और सिलाई मशीन ,जैसे बस यही उनकी दुनिया थी
उनकी आँखों में वो प्यार का सागर और जाने कैसी अजब सी नमी ,
जो हमेशा ही रहती थी
जो आज तक मुझे महसूस होती है
नानाजी से मुझे डर लगता था
अरे वो मारते नहीं थे :)
वो तो सब बच्चो को ही बहुत प्यार करते थे
रोज़ हमारे लिए नयी-नयी चीज़े खाने के लिए लाते थे
डर इसलिए की वो गिनती-पहाड़े सुनने के शौक़ीन थे ,
और मेरे जैसे हकलाने वाले बच्चे के लिए ये बहुत डराने वाला काम था :)
नानाजी फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन का कुछ काम करते थे
और पुरानी दिल्ली का मिनर्वा सिनेमा उनकी पहचान का था
तो हम हर बार कम से कम 2 मूवी वहाँ जरूर देखने जाते थे
वहाँ हमारे लिए वीआईपी बॉक्स रिज़र्व होता था
और मूवी के बीच में जब एक आदमी स्पेशली हमारे लिए
कोल्ड ड्रिंक और खाने का सामन लेकर आता था
तो महाराजा वाली फीलिंग आती थी :)
बचपन था
खूबसूरत था
कोई महँगी चीज़े तो नहीं थी पर ख़ुशी थी
जो हर छोटी सी बात में भी हम ढूंढ लेते थे
जो लोग 70s की पैदाइश है वो इसे अच्छा समझ पाएंगे :)
इससे पहले और बाद के वर्षो में जन्म लेने वाले भी इसमें अपना कुछ अपनापन खोजते रहें :)
#बचपन #bachpan , manojgupta0707.blogspot.com , Writer- Manoj Gupta
यानी 70s के बच्चो के लिए गर्मियों की छुट्टियाँ और नानी का घर
एक बहुत ही ख़ास यादगार पल होते थे
मेरी नानी का घर दिल्ली में ही जमुनापार था
हर छुट्टियों में हम तीनो भाई-बहन और माँ कुछ दिन के लिए वहां जरूर जाते थे
त्रिनगर से वहाँ जाने के लिए पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन तक डीटीसी बस में
और उसके बाद 4 सीटर ओपन ऑटो में जाना पड़ता था
(ये ऑटो कुछ कुछ थाईलैंड वाले टुक-टुक के बोहोत ही मोटे हैवी वाले वर्ज़न होते थे
वैसे ये बस नाम के ही 4 सीटर थे ,लोग तो इसमें ठूस-ठूस के 15-20 बैठते थे )
ये ऑटो बहुत तेज़ आवाज़ करते थे जैसे कोई बुलडोज़र चल रहा हो
रास्ते में अंग्रेज़ो का बनाया एक बहुत ही विशाल जमुना नदी पर बना हुआ एक पुराना पुल पड़ता था
इस पुल को "लोहे का पुल " बोलते थे
ये पुल अंग्रेज़ों ने 1866 में बनवाया था
ये एक डबल डेकर पुल था
इसमें नीचे के फ्लोर पर रिक्शा,तांगा,बस और फोरसीटेर चलते थे
जबकि ऊपर वाले डेक से ट्रैन गुज़रती थी
ये पुल दिल्ली के इन दो बेमेल से हिस्सों (पुरानी दिल्ली और शाहदरा ) को आपस में जोड़ता था
और मुझे मेरी नानी के घर से
नानी का घर ग्राउंड फ्लोर के दो फ्लैट (आगे-पीछे वाले ) से मिलकर बना था
आगे और पीछे दोनों ओर 2 पार्क थे ,जो हमारे खेल के मैदान थे
हम सारे बच्चे दिनभर वहाँ खेला करते
पीछे वाले पार्क के एक कोने में बड़े मामा की एक छोटी सी दूकान भी थी
जहाँ से फ्री कॉपी और पेन मैं अक्सर लेता था
मेरी नानी डिट्टो 60s और 70s के दशक की हिंदी फ़िल्मी माँ की तरह थी
ममतामयी,निरीह ,हमेशा मीठा और बहुत ही धीरे से बोलने वाली,
मेहनती और हमेशा काम में लगी रहने वाली
रसोई और सिलाई मशीन ,जैसे बस यही उनकी दुनिया थी
उनकी आँखों में वो प्यार का सागर और जाने कैसी अजब सी नमी ,
जो हमेशा ही रहती थी
जो आज तक मुझे महसूस होती है
नानाजी से मुझे डर लगता था
अरे वो मारते नहीं थे :)
वो तो सब बच्चो को ही बहुत प्यार करते थे
रोज़ हमारे लिए नयी-नयी चीज़े खाने के लिए लाते थे
डर इसलिए की वो गिनती-पहाड़े सुनने के शौक़ीन थे ,
और मेरे जैसे हकलाने वाले बच्चे के लिए ये बहुत डराने वाला काम था :)
नानाजी फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन का कुछ काम करते थे
और पुरानी दिल्ली का मिनर्वा सिनेमा उनकी पहचान का था
तो हम हर बार कम से कम 2 मूवी वहाँ जरूर देखने जाते थे
वहाँ हमारे लिए वीआईपी बॉक्स रिज़र्व होता था
और मूवी के बीच में जब एक आदमी स्पेशली हमारे लिए
कोल्ड ड्रिंक और खाने का सामन लेकर आता था
तो महाराजा वाली फीलिंग आती थी :)
बचपन था
खूबसूरत था
कोई महँगी चीज़े तो नहीं थी पर ख़ुशी थी
जो हर छोटी सी बात में भी हम ढूंढ लेते थे
जो लोग 70s की पैदाइश है वो इसे अच्छा समझ पाएंगे :)
इससे पहले और बाद के वर्षो में जन्म लेने वाले भी इसमें अपना कुछ अपनापन खोजते रहें :)
#बचपन #bachpan , manojgupta0707.blogspot.com , Writer- Manoj Gupta
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