" किसी गहरे , बहुत गहरे पाताल में हूँ शायद ,
कोई नहीं साथ मेरे , ना संगी - साथी , ना कोई बांधव
चहुँ ओर बस मिटटी है , और है घनघोर अँधेरा ,
दूर दूर तक ना कोई रौशनी , ना कोई सवेरा
चिन्नी सी एक बूँद मिली , तो नम हो पाया है तन मेरा
पर अंतर को सींच सके, ऐसा कहाँ मिला कोई मेरा ?
अब तो आत्मा की शक्ति से जोर लगाना होगा ,
सूरज से मिलने को , ऊपर को शीश उठाना होगा
कुछ तो फूटेगा मेरे अंतर से , जो होगा मेरा अपना
एक नयी सुबह का देखा है , अब मैंने सपना
एक अंगड़ाई ज़रा जोर से जो लगाई मैंने ,
वो सूर्य - किरण भी मुझे देखकर मुस्कुराई जैसे
हंसकर बोली- "आया ही गया लल्ला मेरा " ,
अब बोल क्या है मन में तेरे , क्या है इरादा तेरा
हवा, बारिश, धूप ,कीट-पतंगें , जीव-जंतु , अब है तुझे सबसे खतरा ,
जीने का बस एक और मरने के हैं बहाने सतरा
मैं ( बीज ) बोला -
"माँ , मैं सबसे लडूंगा " ,
आया हूँ तो अपनी आखिरी सांस तक भिढ़ूँगा
पहले डराएंगे फिर दोस्त बन जाएंगे येसब ,
इनको भी तो चाहिए होगा , एक साथी चौकस
एक दिन ये हवा , मेरे ही पत्तो से छनकर बहेगी ,
बारिश मुझपर रुककर , आराम कर मोती बनेगी
पंछी भी आयेंगे , चहचहायेंगे , फल खायेंगे , घर बनायेंगे
गिलहरी भागेगी - दौड़ेगी , बन्दर कूदते-फाँदते खिलखिलायेंगे
ये धूप भी कुछ देर रोज़ अंगड़ाई लेगी , मेरी शाखों पर ,
ये सब रोज़ आएंगे जाएंगे पर मैं रहूंगा सदा , इस धरा पर
कमज़ोर का कहाँ कोई होता है , अपना इस जग में ,
साबित तो करना होगा मुझको , खुद को इस रण में
हवा, धूप, बारिश ना बन पाया तो क्या , पेड़ तो बन पाउँगा ,
प्रकृति-संतुलन पूरा किया तो ही , कृष्ण-प्रिय कहलाउँगा
मैं किसी गहरे , बहुत गहरे पाताल में हूँ शायद
कोई नहीं पास मेरे , ना संगी - साथी , ना कोई बांधव।
( manoj gupta )
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