Thursday, January 18, 2024

तुमसे बिछड़ के बरसों में



 " तुमसे बिछड़ के बरसों में ,

थोड़ा - थोड़ा सा हर रोज़ मरा हूँ  मैं . 

लम्हा - लम्हा मरते - मरते भी ,

कहाँ अपने मन का कुछ कर पाया , कभी मैं


कभी संस्कारों ने मुझे रोका ,

तो कभी दुनियादारी ने ,

और कभी जीवन की आपाधापी में

मैं ही तुम्हें भूल गया था , खुद मैं . 


आज जब मौत ने

आँखों में आँखें डालकर कहा ,

" ये तेरा आखिरी मौका है ' जीने का ' " ,

नहीं पायेगा दोबारा ना तू  , ना ही मैं  . 


बहुत हुआ ,

मैं अब और सोचना नहीं चाहता ,

किसी और के बारे में तो बिलकुल ही नहीं , 

अब और नहीं , कभी नहीं सोचूँगा अब मैं . 


इस जहान के बियोंड  , और उस जहान से परे  , एक मधुबन है शून्य में 

जहाँ  ना कुछ सही होता है , ना गलत  , ना कुछ पाप होता है , ना पुण्य 

" वहीँ मिलूँगा तुम्हे , कभी मैं . "


तुमसे बिछड़ के बरसों में ,

थोड़ा-थोड़ा सा हर रोज़ मरा हूँ  मैं . 

लम्हा - लम्हा मरते - मरते भी ,

कहाँ अपने मन का कुछ कर पाया , कभी मैं "

( मनोज गुप्ता )

#man0707

manojgupta0707.blogspot.com


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