" तुमसे बिछड़ के बरसों में ,
थोड़ा - थोड़ा सा हर रोज़ मरा हूँ मैं .
लम्हा - लम्हा मरते - मरते भी ,
कहाँ अपने मन का कुछ कर पाया , कभी मैं
कभी संस्कारों ने मुझे रोका ,
तो कभी दुनियादारी ने ,
और कभी जीवन की आपाधापी में
मैं ही तुम्हें भूल गया था , खुद मैं .
आज जब मौत ने
आँखों में आँखें डालकर कहा ,
" ये तेरा आखिरी मौका है ' जीने का ' " ,
नहीं पायेगा दोबारा ना तू , ना ही मैं .
बहुत हुआ ,
मैं अब और सोचना नहीं चाहता ,
किसी और के बारे में तो बिलकुल ही नहीं ,
अब और नहीं , कभी नहीं सोचूँगा अब मैं .
इस जहान के बियोंड , और उस जहान से परे , एक मधुबन है शून्य में
जहाँ ना कुछ सही होता है , ना गलत , ना कुछ पाप होता है , ना पुण्य
" वहीँ मिलूँगा तुम्हे , कभी मैं . "
तुमसे बिछड़ के बरसों में ,
थोड़ा-थोड़ा सा हर रोज़ मरा हूँ मैं .
लम्हा - लम्हा मरते - मरते भी ,
कहाँ अपने मन का कुछ कर पाया , कभी मैं "
( मनोज गुप्ता )
#man0707
manojgupta0707.blogspot.com
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