Wednesday, April 29, 2020

नीमके वाली अम्माँ

सबसे पहले तो मैं ये बता दूँ की
मेरी नीमके वाली अम्माँ का नीम के पेड़ से कोई भी सरोकार नहीं था :)

ये तो चूँकि उनका मायका "नीमका" नाम के गांव में था
तो पहचान के लिए की ,
हम कौनसी वाली अम्माँ की बात कर रहे हैं ,
हम सब बोलते ऐसे थे की नीमके वाली अम्माँ ऐसी थीं   ,
अपनी वाली अम्माँ वैसी थीं
अरे यार हमारी चार अम्माँ थीं ना
तो पहचान के लिए कुछ तो अलग बोलना ही था :)

नीमके वाली अम्माँ ,मेरे बाबा (GRAND FATHER ) के छोटे भाई की पत्नी थी
मतलब मेरे छोटे बाबा की पत्नी थीं
मेरे बाबा हर चार भाई थे
जिनमे से मेरे बाबा और उनके दो भाई हमारे गांव जहांगीरपुर में ही ,
करीब-करीब जुड़े हुए मगर तीन अलग-अलग घरों  में रहते थे
और मेरे बाबा के तीसरे भाई दूर पहासू नाम के छोटे शहर में रहते थे


नीमके वाली अम्माँ का घर हमारे तीनो घरों में सबसे बड़ा और हवेली के स्टाइल का था
घर के बाहरी हिस्से में बाबा की कपडे की दूकान थी
घर के अंदर जाने के लिए लकड़ी का बहुत ही भारी और जड़ाऊ दरवाज़ा था ,
जिसमे मोटे-मोटे भारी सांकल होते थे
अंदर घुसते ही बहुत बड़ा आँगन था जिसमे एक कोने में हमेशा 1 या कभी-कभी 2-2 भैंसें बंधी होती थी
जो हर अंदर घुसने वाले का रम्भा के स्वागत करती थी
या शायद वो ही अम्माँ को आवाज़  देकर बताती थी की , घर में कोई आ गया है
अम्माँ बोहोत ही मीठा बोलती थी
बहुत ही ज्यादा मीठा
मुझे बहुत प्यार करती थी
मैं जब भी गाँव जाता था नीमके वाली अम्मा से मिलने हमेशा जाता था
नीमके वाली अम्माँ भी देखते ही बहुत खुश हो जाती थी
और हमेशा कुछ ना कुछ खिलाकर ही वापिस जाने देती थी

एक बार कुछ ऐसी बात हुयी की आज तक सोच के हँसी आ जाती है
मैं नीमके वाली अम्माँ के घर गया तो देखा
आँगन में अम्माँ ने चूल्हे पर दूध उबालने रखा है
अम्मा बोली- "दूध पिएगो बेटा  ? "
मैं बोला- " अम्माँ दूध नहीं मैं तो चाय पियूँगा "
चाय का नाम सुनते ही अम्माँ तो बहुत नाराज़ हो गयीं
(हमारे गांव में आज भी बच्चों को चाय नहीं पिलाई जाती )

अम्मा तो गुस्सा हो गयी और बोलने लगी-
 " लल्ला ये ऐसे-कैसे का सहर के बच्चा है गये ,बच्चन लोग भी कभौ चाय पिया करें "

मैं हँसा,बोला- अम्माँ मोए तो चाय ही पीनो है
(मैंने भी अपने गांव की भाषा में बोलने की कोशिश की :) )
झूठा गुस्सा दिखाते हुए अम्माँ गयी और चाय बना लाई
मैंने चाय का एक बड़ा सा घूँट पिया
यक्क
चाय बहुत ही ज्यादा मीठी थी :)
इतनी मीठी की मेरे होंठ चिपक रहे थे
मैं अभी सोच ही रहा था की क्या करूँ की अम्माँ वापिस आयीं
उनके हाथ में चीनी का मर्तबान था

बड़े भोलेपन से बोलीं-
" लल्ला मो चाय में चीनी कम पिया करुँ तो तोये चाय में भी कमो डारी , तू अपने बाए (लिए) और डार ले "

मुझे तो काटो तो खून नहीं
कभी मैं अम्मा को देखूँ
कभी उनके हाथ में चीनी के बड़े से मर्तबान को
और कभी अपने हाथ के चाय के गिलास को  :)
मैंने तो झटके एक घूँट में वो पूरा चायनुमा मीठा शरबत पिया ,
गिलास जमीन पे रखा और
मैं भागा बाहर
वो आवाज़ लगाती रह गयी-
ए बेटा
का भयो
अरे थम मेरो बिटवा   :)

मैं तो ऐसा भागा
ऐसा भागा
के सीधा अपने घर आके ही रुका
और हॅसते-हॅसते लोटपोट :)
शायद 10-15 मिनिट बाद ही किसी को कुछ बता पाया की क्या हुआ था :)

असल में हमारे गाँव में सब चीनी बहुत ही तेज़ पीते थे
चाय उनके लिए ऐसी थी जैसे की शहर में हम खाने के बाद कोई मिठाई खाते हैं :)
मुझे याद है मुझे रसगुल्ले खाने का शौक था तो मेरे बाबा ख़ास मेरे लिए रसगुल्ले बनवा के लाते थे
क्युकी तब हमारे गांव के हलवाई पेड़े के अलावा और कोई मिठाई रोज़मर्रा में बनाते ही नहीं थे


आज मेरी नीमके वाली अम्मा नहीं हैं ,
(खैर अभी तो चारों अम्माँ ही नहीं हैं )
पर अम्माँ की सरलता
उनका भोलापन
उनका वो निश्छल प्यार

आज भी जब नीमके वाली अम्माँ के बारे सोचता हूँ तो चेहरे पे मुस्कराहट आ जाती है :)

#बचपन #bachpan , manojgupta0707.blogspot.com
Writer- Manoj Gupta











  

Monday, April 27, 2020

भामर सिंह का ट्यूबवेल

पहले तो शहरी दोस्तों की जानकारी के लिए ,
ये ट्यूबवेल क्या होता है,
ये बता दूँ :)
ट्यूबवेल गांव के बच्चो का अपना स्विंमिंगपूल होता है :)
मोटर लगाकर धरती से पानी निकालते है,
उस पानी को एक रेक्टैंगल टैंक में जमा करते हैं
फिर उस टैंक में एक नाली से होकर पानी को खेतों में सिंचाई के लिए छोड़ा जाता है
यही रेक्टैंगल टैंक गांव में बच्चे स्विमिंग पूल के तरह यूज़ करते हैं



हम सारे फूफेरे भाई-बहन हर गर्मियों की छुट्टियों में अपने गांव जहांगीरपुर (ग्रेटर नोएडा) जाते थे 
त्रिनगर से पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन बस से और आगे खुर्जा तक दूधिया ट्रैन से
जी हां दूधिया ट्रैन :)
क्युकी उस ट्रैन से हमारे गांव और आसपास के गावो के
दूध बेचने वाले भैया लोग मुँह अँधेरे दिल्ली में अपना दूध बेचकर वापस गांव जा रहे होते थे 
उस ट्रैन में केवल दूधिया भैय्या लोग ही सीट पर बैठते थे,
ताश खेलते रहते थे
और बाकी दूसरे लोग खड़े रहते थे :)
दूध वाले भैय्या लोगों का राज चलता था उस ट्रैन में :)
फिर खुर्जा से आगे गांव तक तांगा या ठसाठस भरी मिनी बस,
जिसमे सारे ही लोग बीड़ी पीते थे
और पूरी बस धुएं के एक गैस चैम्बर जैसी होती थी

गांव के हमारे घर की दीवार और गांव की मस्जिद की दीवार आज भी एक ही है
जब हम बच्चे घर में खेलते तो उसमे पड़ोस के मुस्लिम बच्चे भी होते
मुझे आज भी याद है की सामने वाले घर की मुस्लिम लड़किया अक्सर हमारे घर आती थीं
वो बहुत ही करीने से सर पे हमेशा दुप्पट्टा ओढे रहती
और हमेशा बहुत ही धीमी आवाज़ में बोलती थी 
हमें तो कभी कोई हिन्दू-मुस्लिम जैसा फ़र्क़ कभी लगा ही नहीं ,
कभी किसी ने जताया भी नहीं
वैसे मुझे तो आज भी कोई फ़र्क़ नहीं लगता :)

चलिए लौट के भामर सिंह जी पे आते है
असल में उनका असल नाम भंवर सिंह था पर
मेरा छोटा भाई मुकेश हमेशा "भामर सिंह" बोलता था
तो मुकेश को चिढ़ाने के लिए
हम सब बच्चे भी जानबूझ कर भामर सिंह ही बोलते थे 
भंवर सिंह जी एक बड़े किसान थे और उनका हमारे परिवार से बहुत प्यार था  
गांव में हमारा सबसे पसंदीदा मनोरंजन था भंवर सिंह जी के ट्यूबवेल पर नहाना 
ट्यूबवेल तो हमारे खेतों पर भी थे पर
भंवर सिंह जी के ट्यूबवेल का टैंक बहुत बड़ा था
तो  बच्चों को वहां नहाने में ज्यादा मज़ा आता था 
तो हम उन्ही के ट्यूबवेल पर नहाने जाते थे
उनका खेत हमारे घर से कोई ३-४ किलोमीटर दूर होगा ,
(पर तब दूर कहाँ लगता था :) ) 
रोज़ सुबह हम सारे बच्चे पैदल निकल पड़ते और खेतों के बीच के कच्चे रास्तो से वहां पहुंचते
रास्ते में एक चारदीवारी हुआ बहुत सुन्दर मैदान, जिसमे काफी पेड़ लगे थे ,मिलता था
कोई बच्चा कहता था की ये मस्जिद है  
मैं सोचता था ये कैसी मस्जिद है जिसमे छत नहीं है 
( बहुत बाद में पता की वो मुस्लिम लोगों की नमाज़ पढ़ने की जगह थी  )
भंवर सिंह जी के ट्यूबवेल पे घंटो हम नहाते रहते 
पानी से खेलते रहते 
और फिर वहीं उनके खेत से ही खरबूजे तोड़कर खूब खाते
काटने को कोई चाकू कहाँ होता था
तो बस कोई भी खेती का औज़ार जो बस खरबूजा काट दे उसी से काटते थे :)
अरे उस वक़्त काहे की  HYGIENE :)
किस चिड़ियाँ को HYGIENE कहते हैं
कभी सोचते भी नहीं थे :)

भंवर सिंह जी का परिवार वहीँ खेत में बने उनके घर में ही रहता था 
उनके परिवार ने भी हमेशा हम बच्चो को प्यार ही दिया
हमने कितना खाया कितना बर्बाद किया उन्होंने कभी जताया ही नहीं
मुझे याद है एक बार उन्होंने मुझे "लाल दूध" पीने दिया

(यार ये "लाल दूध" किसान लोग अपने बच्चो के लिए बनाते हैं ,
इसमें दूध को लगातार कई घंटे धीमी आंच पे उबाला जाता है,
फिर जब दूध लाल हो जाये और मात्रा में तिहाई-चौथाई रह जाए
तो फिर उसमे ढेर गुड़ डालकर बच्चो को पिलाया जाता है)

मैंने एक गिलास पीया
अच्छा लगा
उन्होंने पूछा - "बेटा और लोगे ? "
मैंने एक और गिलास पी लिया 
अब पी तो लिया
पर मुझे ही पता है के कैसे मैं घर तक वापिस आया
और अगले दो दिन मैं कितनी बार खेत-पानी को गया :)
वो दूध, दूध नहीं पूरा निरा मीठा खोया होता है
उसे पचाने के लिए लोहे का शरीर चाहिए होता है :)
बस ऐसी ही अनगिनत यादें हैं गांव की ..
भामर सिंह जी के ट्यूबवेल की

आज गांव में हमारा अपना एक फार्महाउस है
जो मेरी अम्मा "मेवा देवी" और मेरे बाबा "परमेश्वरि दयाल गुप्ता जी " के नाम पर है


आज गांव में हमारा अपना एक फार्महाउस है
जहाँ 8 गाय हैं
जहां आज हम पिछले चार साल से 100 % आर्गेनिक सब्जियाँ उगा रहें हैं
जहाँ आज भामर सिंह जी के ट्यूबवेल से भी बहुत बड़ा ट्यूबवेल ,
मनोज और विकास भाई ने बनवा दिया है 
ट्यूबवेल तो बन गया है 
पर वो हम सब भाई-बहन अब कहाँ इकठ्ठे हो पाते हैं
सभी मित्रों को भी बोलता हूँ की मेरे साथ चलो
पर कहाँ किसी को फुर्सत है :)
हम सब बस लगे हैं जीवन की इस RAT RACE में 
इसलिए अब कहाँ वो बचपन की मस्ती और आलौकिक मज़ा..

अब तो बस यादें हैं गाँव की
भामर सिंह जी के ट्यूबवेल पे बिताये बेहतरीन पलों की :)

#बचपन #bachpan , manojgupta0707.blogspot.com
Writer- Manoj Gupta 

नानी का घर

मेरे बचपन में ,
यानी 70s के बच्चो के लिए गर्मियों की छुट्टियाँ और नानी का घर
एक बहुत ही ख़ास यादगार पल होते थे
मेरी नानी का घर दिल्ली में ही जमुनापार था
हर छुट्टियों में हम तीनो भाई-बहन और माँ कुछ दिन के लिए वहां जरूर जाते थे
त्रिनगर से वहाँ जाने के लिए पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन तक डीटीसी बस में
और उसके बाद 4 सीटर ओपन ऑटो में जाना पड़ता था

(ये ऑटो कुछ कुछ थाईलैंड वाले टुक-टुक के बोहोत ही मोटे हैवी वाले वर्ज़न होते थे
वैसे ये बस नाम के ही 4 सीटर थे ,लोग तो इसमें ठूस-ठूस के 15-20 बैठते थे )



ये ऑटो बहुत तेज़ आवाज़ करते थे जैसे कोई बुलडोज़र चल रहा हो

रास्ते में अंग्रेज़ो का बनाया एक बहुत ही विशाल जमुना नदी पर बना हुआ एक पुराना पुल पड़ता था
इस पुल को "लोहे का पुल " बोलते थे
ये पुल अंग्रेज़ों ने 1866 में बनवाया था
ये एक डबल डेकर पुल  था
इसमें नीचे के फ्लोर पर रिक्शा,तांगा,बस और फोरसीटेर चलते थे
जबकि ऊपर वाले डेक से ट्रैन गुज़रती थी
ये पुल दिल्ली के इन दो बेमेल से हिस्सों (पुरानी दिल्ली और शाहदरा ) को आपस में जोड़ता था
और मुझे मेरी नानी के घर से

नानी का घर ग्राउंड फ्लोर के दो फ्लैट (आगे-पीछे वाले ) से मिलकर बना था
आगे और पीछे दोनों ओर 2 पार्क थे ,जो हमारे खेल के मैदान थे
हम सारे बच्चे दिनभर वहाँ खेला करते
पीछे वाले पार्क के एक कोने में बड़े मामा की एक छोटी सी दूकान भी थी
जहाँ से फ्री कॉपी और पेन मैं अक्सर लेता था

मेरी नानी डिट्टो 60s और 70s के दशक की हिंदी फ़िल्मी माँ की तरह थी
ममतामयी,निरीह ,हमेशा मीठा और बहुत ही धीरे से बोलने वाली,
मेहनती और हमेशा काम में लगी रहने वाली
रसोई और सिलाई मशीन ,जैसे बस यही उनकी दुनिया थी
उनकी आँखों में वो प्यार का सागर और जाने कैसी अजब सी नमी ,
जो हमेशा ही रहती थी
जो आज तक मुझे महसूस होती है

नानाजी से मुझे डर लगता था
अरे वो मारते नहीं थे :)
वो तो सब बच्चो को ही बहुत प्यार करते थे
रोज़ हमारे लिए नयी-नयी चीज़े खाने के लिए लाते थे
डर इसलिए की वो गिनती-पहाड़े सुनने के शौक़ीन थे ,
और मेरे जैसे हकलाने वाले बच्चे के लिए ये बहुत डराने वाला काम था :)
नानाजी फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन का कुछ काम करते थे
और पुरानी दिल्ली का मिनर्वा सिनेमा उनकी पहचान का था
तो हम हर बार कम से कम 2 मूवी वहाँ जरूर देखने जाते थे
वहाँ हमारे लिए वीआईपी बॉक्स रिज़र्व होता था
और मूवी के बीच में जब एक आदमी स्पेशली हमारे लिए
कोल्ड ड्रिंक और खाने का सामन लेकर आता था
तो महाराजा वाली फीलिंग आती थी :)

बचपन था
खूबसूरत था
कोई महँगी चीज़े तो नहीं थी पर ख़ुशी थी
जो हर छोटी सी बात में भी हम ढूंढ लेते थे

जो लोग 70s की पैदाइश है वो इसे अच्छा समझ पाएंगे :)
इससे पहले और बाद के वर्षो में जन्म लेने वाले भी इसमें अपना कुछ अपनापन खोजते रहें :)

#बचपन #bachpan ,  manojgupta0707.blogspot.com , Writer- Manoj Gupta 

Monday, April 20, 2020

पापा


पापा बरगद से सख्त दिखते थे
पर थे बड़े प्यारे, थे सबके यार
अंतर में छुपाये रखते थे वो
अपनी सारी परेशानियाँ और अपना प्यार

वो अक्सर मुझे यूही डाँट देते थे
साथ कौन है खड़ा,कभी ध्यान ही नहीं देते थे 
फिर मैं उनसे छुप छुपकर रोता था
वो ऐसा क्यों करते है ,भान ही नहीं होता था

पंद्रह आने प्यार तो एकआने नफरत भी मैं करता था 
कब मैं भी बड़ा बनूंगा? अक्सर सोचा करता था 
दिखा दूंगा एक दिन उनको , मैं भी कुछ हूँ ,ये सोचकर
थोड़ी सी और मेहनत हरदिन किया करता था

और एक अभागे दिन ,जब वो बरगद गिर गया 
ऐसा लगा मुझ कर्ण से उसका,कवच-कुण्डल छिन गया 
सूर्य अस्त हो चुका था और अब तो बस कपटी इंद्र था
जीवन की घनघोर बारिश से ,मैं अंदर तक हिल गया

तब जाके जाना मैंने
जीवन का सत्व ,
जीवन का सार
वो बरगद ही था जो ,हर आग-पानी को खुदमें सौक लेता था
और मुझतक तो केवल छाया-ठंडक आने देता था

आज जो हूँ केवल उनकी वजह से हूँ, ये यादकर
भर जाती है आँखें , कैसा था .... मैं?, ये सोचकर 

और अब इतिहास खुद को दोहरा रहा है 
फर्क बस इतना है ,अब मेरी जगह मेरा बेटा आ रहा है 
बेटा सामने बैठा है और मैं डाँट रहा हूँ उस को
आज मैं जान रहा हूँ पापा होने की चिन्ताओ को
अब समझ आ रही है मुझे ,पुरानी हर घटना जीवन की
कैसे पापा को दुःख दिया, समझा कहाँ व्यथा उनके मनकी

कोशिश करता हूँ बेटे को मैं ,हँसकर ही समझाता हूँ
गुस्सा हो भी जाऊ कभी तो ,बाद में प्यार से मनाता हूँ
मैं नहीं चाहता की वो भी ,देर से पश्चाताप करे
बरगद गिर जाने के बाद रोकर फिर खुद से ही लड़े

की

पापा बरगद से सख्त दिखते थे
पर थे बड़े प्यारे, थे सबके यार
अंतर में छुपाये रखते थे वो
अपनी सारी परेशानियाँ और अपना प्यार।

( लेखक - मनोज गुप्ता , manojgupta0707.blogspot.com )

#पापा  #papa  #HappyFathersDay




Thursday, April 16, 2020

बीज (kavita)


किसी गहरे
बहुत गहरे पाताल में हूँ शायद
कोई नहीं साथ मेरे
ना संगी , ना साथी , ना कोई बांधव

चहुँ ओर बस मिटटी है ,
और है घनघोर अँधेरा
दूर दूर तक ना रौशनी , 
नहीं कोई सवेरा
बस एक बूँद है जल की ,
बस भीग पाया है तन मेरा
अंतर को सींच सके, 
ऐसा कहाँ है कोई मेरा

अब तो आत्मा की शक्ति से जोर लगाना होगा
ऊपर को देख कर ही शीश उठाना होगा
कुछ तो फूटेगा मेरे अंतर से , 
जो होगा मेरा अपना
एक नयी सुबह का देखा है , 
अब मैंने सपना

एक अंगड़ाई ज़रा जोर से जो लगाई मैंने
वो सूर्य-किरण भी देखकर मुस्कुराई जैसे

हंसकर बोली- "आया ही गया लल्ला मेरा "

अब बोल क्या है मन में 
क्या है इरादा तेरा
हवा, बारिश, धूप ,कीट-पतंगें 
अब है तुझे सबसे खतरा
जीने का बस एक.... 
मरने के हैं बहाने सतरा

बीज बोला - "माँ ,हवा , धूप ,बारिश , कीट-पतंगें सबसे लडूंगा "

आया हूँ तो अपनी आखिरी सांस तक भिढ़ूँगा
पहले डराएंगे फिर दोस्त बन जाएंगे येसब
इनको भी तो चाहिए होगा ,
एक साथी चौकस

एक दिन ये हवा ,
मेरे ही पत्तो से छनकर बहेगी
बारिश मुझपर रुककर ,
आराम कर मोती बनेगी
ये धूप भी कुछ देर रोज़ अंगड़ाई लेगी ,
मेरी शाखों पर
ये रोज आएंगे जाएंगे पर मैं रहूंगा सदा ,
इस धरा पर

कमज़ोर का कहाँ कोई अपना इस जग में
साबित तो करना होगा खुद को इस रण में
हवा, धूप, बारिश नहीं तो पेड़ तो बन पाउँगा 
प्रकृति-संतुलन पूरा किया तो ही ,
कृष्ण-प्रिय कहाउंगा 

किसी गहरे
बहुत गहरे जहाँ में हूँ शायद
कोई नहीं पास मेरे
ना संगी ना साथी ना कोई बांधव।

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प्रिय मित्रों ,
मैं आपका ह्रदय से आभारी हूँ की
आपका स्नेह मुझे लगातार मिल रहा है 😇
कृपया आप मेरी और भी कहानियाँ और कवितायें पढ़ने के लिए मेरे ब्लॉग
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Wednesday, April 15, 2020

वो जामुन का पेड़

वो जामुन का पेड़
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बचपन त्रिनगर (दिल्ली ) में बीता

बोहोत खुशनुमा था :)

साइकिल पे स्कूल , वापिसी के रास्ते में लाला जी की टिक्की टॉस, घर आये तो गली के दोस्त, कंचे, इलेक्शन के दिनों में बिल्ले, लाइट जाने पर गली में दोस्तों का गप्प अड्डा, किराये की कॉमिक्स, प्लास्टिक की बॉल से क्रिकेट, पार्क के नल से पानी, वहीं साइकिल-रेड़ी से छोले कुलचे,सब्जी-कचौरी या फिर आलू टिक्की. टीवी पर बुधवार और शुक्रवार का चित्रहार और संडे सुबह स्पाइडरमैन विद रसना या थम्स -अप और शाम की एक टीवी मूवी।
गर्मियों में छत्त पे पानी का छिड़काव और फोल्डिंग बेड पे चादर को गीला करके कूलर की हवा में सोना।
जन्मदिन पर दोस्तों की पार्टी पाइनएप्पल केक, समोसे, छोटे रसगुल्ले, भुजिया, कोल्ड ड्रिंक-गोल्ड स्पॉट  ,थम्स -अप ,यशिका कैमेरे (36 रोल वाली रील ) से फोटो.
और कभी-कभी सारी रात किराये के कलर टीवी और वीसीआर पे बैक तो बैक 5 मूवी (पुरे मोहल्ले के साथ ) :)

और महीने में एक बार सिनेमा हॉल पर कोई नयी मूवी. और गर्मियों में पापा के साथ उनकी ब्राउन एम्बैस्डर कार में स्विमिंग, वो भी दिल्ली के किसी 5 स्टार होटल में. मसलन अशोक,अकबर....
कुल मिलाकर बेहतरीन समय था :)

घर के बिलकुल पास एक पार्क था , रोज़ गार्डन.
रोज़ तो मैंने कभी वहां देखे नहीं पर हाँ एक जामुन का पेड़ जरूर था
एक दिन सुबह सुबह हम सब दोस्त क्रिकेट खेलने गए तो जामुन तोड़ने के लिए पेड़ में ईंट के टुकड़े मारने लगे
जामुन तो बहुत सारे टूटे पर साथ ही पेड़ पर लगकर एक ईंट नीचे मेरे सर पे गिरी और सर फट गया
एक दोस्त के साथ डॉक्टर के यहाँ गया और पट्टी कराई
२-३ बाद ही मेरा जन्मदिन था, उसकी फोटो में भी मेरे सर पर पट्टी बंधी है और सर पर चोट का निशान आज भी है :)

बरसो बीत गए हैं
वो जामुन का पेड़ आज भी वहीं खड़ा है
कह रहा है-
"तुम वापिस आओ तो सही
मुझे पथ्थर मारो मैं तुम्हे जामुन दूंगा"
वो हम सब दोस्तों के लौटने का इंतज़ार कर रहा है
और हम सब में कोई अमेरिका ,कोई रायपुर, कोई दिल्ली में ही किसी पॉश कॉलोनी में रहने चला गया
अब
हम जामुन का जूस पीते है वो भी पैकेड बहुत सारे प्रेज़रवेटिव केमिकल के साथ
अब हमें घर पर रोटी-सब्जी या दाल चावल से ज्यादा रेस्टॉरेंट का खाना अच्छा लगता है
कपडे आरामदायक हों या नहीं पर फैशन के अनुसार होते हैं
घर बड़ा है पर उसमे रहने का ना समय है ना इच्छा
मॉल ,मूवी ,बाहर का खाना हमारा फेवरेट टाइम पास है.
और जो समय घर पे बीता वो भी टीवी ,मोबाइल, नेटफ्लिक्स_ _

और अब अचानक कोरोना  :(
रोज़ लगता है जैसे ये कोई सपना चल रहा है और अभी नींद खुलेगी और ये गायब हो जाएगा
पर नहीं ये आज का भयानक सच है

मुझे लगता है -
हमें फिर से प्रकृति के साथ जुड़ना होगा
घर में बना ताज़ा खाना
आरामदायक कपड़ें हों चाहे फैशन जो भी हो
घरवालों में आपसी प्यार हो
RAT-RACE से भी निकलना होगा

इतना सब करने पर भी शायद कभी दुःख की ईंट सर पर गिर सकती है
सर फट सकता है
पर धरती से जुड़े रहेंगे तो हर दुःख से उबर जाएंगे

जी पायेंगे:)








Tuesday, April 14, 2020

WHO CARES :)

WHO CARES :)
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सालों पहले की बात है शायद 30  साल पहले की
मैंने पापा से ज़िद करके अपने लिए एक पुरानी लाल मारुती 800 कार ली
डिक्की के शीशे पे स्टीकर लगाया  WHO CARES :)
पापा ने देखा तो बहुत गुस्सा हुए, बोले-
हां भाई तू क्यों केयर करेगा :)

आज सोचता हूँ  की अच्छा था ना तब
केयरलेस लाइफ थी
ना कोई चिंता थी
ना भविष्य के बड़े-बड़े सपने
और फिर ना उन सपनो की लम्बी चौड़ी प्लानिंग

आज भविष्य की चिंता ,नए नए डर अंदर से खोखला किये दे रहे हैं
इतना नुक्सान किसी विपत्ति के आने से नहीं होता जितना उसकी चिंता में सोचते रहने से.


Tuesday, April 7, 2020

बेटी

वो बस अभी आयी है
माँ की गोद में है
छोटी , काली, मरियल सी

बाप डरता सा... गोद में उठाता है
सोचता है
तो का हुआ
सब ऐसी ही तो होत हैं
प्यार से निहारता है
यकायक सिहरता है

"कैसे बचाऊगो याए
घर में बच भी गयी तो बाहर
गन्दी छुअन.. जे जवाब दियो तो एसिड
और और पढ़ाऊगो कैसे
फीस है कॉपी है किताब है ड्रेस है
सकूल का रिश्का
और जाने का-का
और और जो पढ भी गयी तो सादी कैसे हुई
दान-दहेज़ है,कपड़ा लत्ता है,दावत - मोटर साइकिल
और जो मैं ना दे पायो तो
मार-पिटाई... तलाक"

वो पसीने-पसीने हो
उसे वहीं बिस्तर पे पटक देता है 
भागता सा बाहर निकल जाता है
ताड़ी पीने...

माँ लपक के उठाती है
छाती से लगाती है
चूमती है
आँखों में आंसू है
"तू क्यों आयी रे बिटिया ? "



बेटी के चेहरे पे हँसी सी है
जैसे कह रही हो
"माँ, आयी हूँ , लड़ूँगी, जीतूँगी" ।



Sunday, April 5, 2020

भारत एक ऐसा देश है जहाँ.......:(

भारत एक ऐसा देश है जहाँ,
लोग जो मंदिर बनाते है
वही लोग मंदिर के अंदर
कही-कही ही जा पाते हैं
और जहाँ-जहाँ वो जा भी पाते है वहाँ
घंटो के इंतज़ार के बाद
बस दूर से ही दर्शन पाते है
उनकी परछाई से भगवान् अपवित्र हो सकते है क्युकी
अब राम भी कहाँ
शबरी के झूठे बेर खाते हैं
भारत एक ऐसा देश है जहाँ.......:(

" सही "

मैं एक बहुत ही साधारण व्यक्ति हूँ
100 % गलत हो सकता हूँ
जो कहने जा रहा हूँ
अगर गलत लगे तो
करबद्ध माफ़ी पहले ही मांग रहा हूँ

आज मुस्लिम भाइयो के साथ जो बुरा बर्ताव हो रहा है उसके लिए जिम्मेदार
-मीडिया
-कुछ हिन्दू संगठन
और स्वयं
-मुस्लिम समाज से जुड़े बहुत सारे अशिक्षित,अंधविश्वासी और कट्टरवादी लोग और संगठन है

मैं स्वयं बचपन से (1988 से ) कांग्रेस का समर्थक रहा (क्युकी पिता कांग्रेस से जुड़े थे)
"आप" आयी तो लगा ये देश में कुछ बदलाव लाएंगे तो उनके साथ जुड़ गया
अभी उनसे भी कुछ मोह भंग हुआ है
पर अभी भी लगता की वो देश के लिए सबसे बेहतर उपलब्ध विकल्प हैं

"सही" करना हमेशा मुश्किल होता है
उससे तुरंत कुछ नुक्सान भी हो सकता है
पर भविष्य में उसे हमेशा सराहा ही जाएगा

कांग्रेस के शासन में हिन्दू-मुस्लिम मतभेद काफी कम थे
पर कांग्रेस ने कुछ बड़ी गलतिया की
शाह बानो,दिल्ली 1984,राम मंदिर मुद्दे पर शिथिल रवैय्या
अगर तब फौरी फायदा ना देखा होता और "सही" किया होता तो आज सर उठा कर देश का नेतृत्व करते

आज वही गलतियां बीजेपी कर रही है
गुजरात 2002, दिल्ली २०२०,मोब लॉन्चिंग और हिन्दू-मुस्लिम मतभेद को मौन समर्थन.
हालांकि मैं सोचता हूँ कश्मीर-370 और राम मंदिर पर सख्त फैसले कठोर पर "सही" हैं और
भविष्य में देश ये समझेगा

आज की जरूरत है की जहाँ एक ओर बीजेपी को हिंदुत्व से हट  कर "भारतीयता" पर काम करना होगा
 वर्ना बीजेपी का भी कांग्रेस जैसा हाल होगा
अब वो चाहे 2024  में हो या 2029  में
क्युकी
"जो सही है वो हमेशा सही ही रहेगा"

आज पढ़े-लिखे मुस्लिम तबके को भी जिम्मेदारी से आगे आना होगा
मुस्लिम समाज के लिए आधुनिक शिक्षा और कुरीतियों पर काम करना होगा
उन्हें सिख समुदाय से सीखना होगा की कैसे जब 1984 के बाद के वर्षो में जब एक बुरा शब्द इस समुदाय के साथ जुड़ रहा था तो इस समुदाय ने आत्ममंथन किया और आज कैसे हर आपदा में सिख समुदाय सबसे आगे सहायता करता दिखता  है और आज भारत का सबसे आधुनिक सोच वाला समुदाय है
-शादिया अक्सर सादी ,SUNDAY दोपहर में ,गुरूद्वारे में और वो भी बिना किसी अंधविश्वासी महुर्त के
-गुरूद्वारे आज विश्व के सबसे स्वच्छ और बगैर भेदभाव वाले धार्मिक स्थल
-निस्वार्थ कारसेवा और मुफ्त भोजन लंगर सभी के लिए

और बाकी रहा मीडिया, तो उसे त्याग दीजिये
मैंने कई सालो से टीवी न्यूज़ और अखवार छोड़ दिया है
अभी हाल में NDTV भी छोड़ दिया
अब केवल ललनटोप पर दिन में एक बार न्यूज़ देख लेता हूँ
मुझे लगता है ये सबसे आसान भाषा में गूढ़ मुद्दों को समझाते हैं
केवल खबर देते है
हमारी सोच पर हावी होने की कोशिश नहीं करते

इंसान हूँ
कुछ गलत कहा हो तो माफ़ कर दीजियेगा :)