जैसे जैसे लड़की बड़ी होती है
उसके सामने दीवार खड़ी होती है क्रांतिकारी कहते हैं कि दीवार तोड़ देनी चाहिए पर लड़की है समझदार और संवेदनशील, वह दीवार पर लगाती है खूँटियाँ पढ़ाई लिखाई और रोज़गार की। और एक दिन धीरे से उन पर पाँव धरती दीवार की दूसरी तरफ़ पहुँच जाती है। ~ ममता कालियाSaturday, June 19, 2021
Sunday, May 23, 2021
‘मेरा साहेब नंगा’
मूल गुजराती कविता- likhika - parul khakkar
એક અવાજે મડદાં બોલ્યાં ‘સબ કુછ ચંગા-ચંગા’
રાજ, તમારા રામરાજ્યમાં શબવાહિની ગંગા.
રાજ, તમારા મસાણ ખૂટયા, ખૂટયા લક્કડભારા,
રાજ, અમારા ડાઘૂ ખૂટયા, ખૂટયા રોવણહારા,
ઘરેઘરે જઈ જમડાંટોળી કરતી નાચ કઢંગા
રાજ, તમારા રામરાજ્યમાં શબવાહિની ગંગા.
રાજ, તમારી ધગધગ ધૂણતી ચીમની પોરો માંગે,
રાજ, અમારી ચૂડલી ફૂટે, ધડધડ છાતી ભાંગે
બળતું જોઈ ફીડલ વગાડે ‘વાહ રે બિલ્લા-રંગા’!
રાજ, તમારા રામરાજ્યમાં શબવાહિની ગંગા.
રાજ, તમારા દિવ્ય વસ્ત્ર ને દિવ્ય તમારી જ્યોતિ
રાજ, તમોને અસલી રૂપે આખી નગરી જોતી
હોય મરદ તે આવી બોલો ‘રાજા મેરા નંગા’
રાજ, તમારા રામરાજ્યમાં શબવાહિની ગંગા.
इलियास शेख द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद
एक साथ सब मुर्दे बोले ‘सब कुछ चंगा-चंगा’
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
ख़त्म हुए शमशान तुम्हारे, ख़त्म काष्ठ की बोरी
थके हमारे कंधे सारे, आँखें रह गई कोरी
दर-दर जाकर यमदूत खेले
मौत का नाच बेढंगा
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
नित लगातार जलती चिताएँ
राहत माँगे पलभर
नित लगातार टूटे चूड़ियाँ
कुटती छाति घर घर
देख लपटों को फ़िडल बजाते वाह रे ‘बिल्ला-रंगा’
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
साहेब तुम्हारे दिव्य वस्त्र, दैदीप्य तुम्हारी ज्योति
काश असलियत लोग समझते, हो तुम पत्थर, ना मोती
हो हिम्मत तो आके बोलो
‘मेरा साहेब नंगा’
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
Wednesday, May 5, 2021
अन्तर्यामी है "माँ"
अन्तर्यामी है "माँ"
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आज अनिल जी का 60वां जन्मदिन है
शाम हो चली है पर अब तक घर में किसी को याद नहीं आया
उदास से अनिल जी अपने कमरे की बालकनी में बैठे नीचे लॉन में निहार रहे हैं
जहाँ उनके दोनों पोते अपनी माँ सिया के साथ बैडमिंटन खेल रहे हैं
उन तीनों की प्यारी-प्यारी आवाज़े उन्हें बार-बार अपने बचपन में ले जा रही हैं
अचानक उन्हें ख़याल आया
"अगर आज माँ होती तो क्या आज भी माँ को मेरा जन्मदिन याद रहता ? "
हमेशा माँ का ख़याल आते ही अनिल जी को अपना बचपन याद आने लगता
मेरठ में उनका वो छोटा सा दो कमरे का क्वार्टर
और वो खुद चार भाई-बहन,
तख्ती ,टाट-पट्टी वाले सरकारी स्कूल में पढ़ाई ,
माँ का वो पूरा-पूरा दिन और आधी रात तक पड़ोस के घरों के कपड़े सीना
( बाउजी जी को छोड़कर बाकी परिवार के कपडे भी माँ घर पर ही सिलती थी )
अनिल जी ने अपनी माँ को तो पूरे जीवन जैसे बस एक ही साड़ी में लिपटे देखा था
बाउजी जितने पैसे माँ को देते थे उसमें तो छह लोगों के परिवार का खाना ही मुश्किल से होता था
तो फिर चारों बच्चों की छोटी-छोटी ख्वाइशें माँ के कपडे सीने से आये पैसो से ही पूरी होती
अनिल घर में सबसे छोटा था
तो खासकर अनिल को तो माँ ने कभी किसी चीज़ के लिए ना नहीं कहा
हाँ कभी कोई चीज़ आने में महीना डेढ़ महीना भी लगता था
जैसे अनिल के 15वें जन्मदिन के लिए साइकिल ( पुरानी ) भी माँ ,
उसका जन्मदिन जाने के भी दो महीने बाद खरीद पाई थी
पर माँ वादे की पक्की थी
जो कहती थी "देर-सबेर ही सही पूरा करती थी "
जैसे अन्तर्यामी थी माँ
उसके अन्नी को क्या चाहिए जाने कैसे पता लगा लेती थी
माँ की वो सांवली पतली देह और आँखों की पनीली दयनीयता आज भी अनिल जी के जेहन में धुंधली नहीं हुई थी
इसके बिलकुल उलट अनिल के बाउजी एक रोबदार व्यक्तित्व के मालिक थे
गोरे-चिट्टे , लम्बे ,हमेशा साफ़-सुथरे प्रेस्सेड कपडे और पॉलिशड जूते
जब बाउजी रात में शराब के नशे में चूर सिगरेट का धुँआ उड़ाते घर में घुसते तो
सारे भाई -बहन डर के मारे अपने बिस्तर में ऐसे दुबकते
जैसे जंगल में शेर को देखकर हिरन शावक
सहमी सी माँ खाने की थाली लेकर जाती
और फिर बाऊजी ,माँ से पूरे दिन के सवाल-जवाब करते
" कौन आया था ? , क्यों आया था ?
ये सिलाई मशीन यहाँ क्यों पड़ी है ?
तू कपडे सीती क्यों है ?
ताकि पड़ोसी मेरा मज़ाक उड़ाये
उन्हें लगे के मैं तुझे पैसे नहीं देता
पति की बेइज़्ज़ती कराती है "
घूम फिर के सवाल हमेशा वही होते थे
और परीणिती अक्सर माँ को मिली गालियाँ , मनहूस होने के ताने और थप्पड़ों से ही होती
बाउजी की हर नाकामी हर नुक्सान का भुगतान माँ को ही करना पड़ता था
बचपन में ये सब देखकर अनिल सोचता
कैसे भी वो जल्दी से जल्दी बड़ा हो जाये, नौकरी करे , पैसे कमाये
और माँ को इस नरक जैसी ज़िन्दगी से दूर, बहुत दूर ले जाये
अनिल पढ़ाई में बहुत अच्छा था
सो इसी आग जैसे जीवन से गुजरते हुए भी अनिल ने IIT entrance exam पास कर लिया
बस में मेरठ से दिल्ली जाते हुए सारे रास्ते अनिल बस यही प्रण करता रहा था
की कैसे भी करके जल्दी से जल्दी पढ़ाई ख़त्म करके उसे नौकरी मिल जाये
तो वो माँ को अपने साथ दिल्ली ले जाएगा ,
बाउजी से दूर
इस मनहूस ज़िंदगी से दूर
फिर वो माँ को दुनिया का हर सुख देगा
अनिल के लिए दिल्ली सपनों का शहर था
जैसे-जैसे समय बीतता गया अनिल दिल्ली के रंग में रमता गया
शुरू शुरू में वो हर हफ्ते माँ से मिलने मेरठ जाता था
पर फिर हफ्ते कब महीनों में बदलने लगे उसे पता ही नहीं चला
माँ उसके मकान मालिक के फोन पर फोन करती तो अनिल कुछ भी कहकर
"इम्तिहान आने वाले हैं
बहुत मुश्किल पढ़ाई है
इस महीने नहीं आ पाउँगा "
इत्यादि इत्यादि
कहकर टाल देता
पर असल बात ये थी अब खुद अनिल को मेरठ का वो घर नरक लगता था
वो कभी भी वहाँ जाना ही नहीं चाहता था
पर माँ के भेजे छोटे-छोटे मनीऑर्डर अनिल को हर हफ्ते बिला नागा मिलते रहते
जैसे अन्तर्यामी थी माँ
अनिल की हर फीस ,हर खर्चे का जाने कैसे पता लगा लेती थी
आखिरकार वो शुभ दिन भी आया जब अनिल की पढ़ाई पूरी हो गयी
और अनिल को अच्छी सरकारी नौकरी मिल गई
अब अनिल माँ को अपने साथ दिल्ली लाना चाहता था
पर बाउजी की तबियत अब कुछ ठीक नहीं रहती थी तो माँ नहीं आ पाईं
इन बीते चार सालों में दोनों बहनों की और बड़े भैया की भी शादी हो चुकी थी
और बड़े भैया ने घर में ही परचून की दुकान खोल ली थी
इधर अनिल के सीनियर अफसर अनिल के संस्कारी व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुये
की उन्होंने अपनी बेटी के लिए अनिल को पसंद कर लिया
उन दिनों बाउजी की हालत गंभीर थी
तो माँ ,अनिल की शादी में भी बस दो दिन के लिये ही आ पाईं थी
अनिल की शादी के कुछ दिन बाद ही बाउजी का देहांत हो गया
तेहरवीं के बाद अनिल माँ से बोला
"माँ अब तो कोई बहाना नहीं बचा , अब तो मेरे साथ चलो "
माँ हौले से मुस्काई थी और हाँ में सर हिलाया
बड़े भैय्या-भाभी ने माँ को बहुत रोका था
पर अनिल नहीं माना
और माँ उस दो कमरे के नर्क से अनिल के बड़े से सरकारी बँगले में आ गई
शुरू के कुछ दिन तो बहुत अच्छे बीते थे
फिर वही हुआ जो अक्सर होता है
अनिल ऑफिस से घर आता तो हर दिन सुमन से माँ की बुराई ही सुनता
"आज तुम्हारी माँ ने ये कह दिया
आज तुम्हारी माँ ने ये कर दिया "
अनिल हैरान था की पूरी ज़िंदगी जिस माँ की उसने ठीक से आवाज़ भी नहीं सुनी
अब उस माँ में ऐसा क्या बदलाव आ गया ?
घर का माहौल इतना खराब हो गया था की
ऑफिस का काम ख़त्म कर घर जाने का सोचते ही अनिल को तनाव होने लगता
इसी कारण अब अनिल अक्सर काम का बहाना कर दोस्तों के साथ बैठता
और फिर देर रात शराब पीकर घर पहुंचता
और फिर ऐसी ही एक रात जब अनिल घर पहुँचा
तो बेल बजाने पर घर का दरवाज़ा नौकर ने नहीं , माँ ने खोला
हड़बड़ा कर अनिल ने मुँह दूसरी और घुमाया
माँ बहुत ही धीरे स्वर में बोली थी
" मुँह मत छुपा अन्नी
इस जहर की गंध मैं सौ कोस से पहचान लेती हूँ
ये जहर मेरा पूरा जीवन लील गया
पर अब और नहीं
तू सुमन का ख़याल रख
वो माँ बनने वाली है
ये रोज़ रोज़ का तनाव उसके लिए ठीक नहीं
कल सुबह मैं मेरठ जाऊँगी "
अनिल बच्चों की तरह रोते हुए माँ से लिपट गया
उसे ध्यान नहीं की उस रात वो कितनी देर तक रोता रहा
क्या कहता रहा
और फिर कब उसकी आँख लग गई
अगली सुबह अनिल की नींद काफी देर से खुली
श्याम (नौकर) चाय लेकर आया तो अनिल ने माँ के बारे में पूछा
" साब माँजी तो सुबह सात बजे ही मेरठ चली गयीं
गुलशन (ड्राइवर ) बस में बिठा आया था "
गुस्से और संताप में अनिल बिस्तर पे बैठे-बैठे ही सुबकने लगा
जैसे अन्तर्यामी थी माँ
उसके अन्नी के सुख के लिए क्या करना है जाने कैसे पता लगा लेती थी
उसके बाद अनिल ने कई बार माँ को अपने घर लाने की कोशिश की
पर सब बेकार
हर बार माँ के नये बहाने होते
" दिवाली पे आऊँगी
फिर दिवाली आती तो कहतीं
अभी तो दिल्ली में ठण्ड होगी ,अच्छा तो होली के बाद पक्का आऊँगी "
कभी फिर
" अभी तो तेरी बड़ी दीदी आयी हुयी है
और कभी फिर छोटी आयी हुयी है "
इसी तरह दस साल निकल गये
इन दस सालों में माँ सिर्फ तीन बार अनिल के घर आयी थी
अनिल के दोनों बच्चों के जनम पर
और तीसरी बार दो साल पहले अनिल के नए बंगले के मुहूर्त पे
तीनों बार माँ कोई ना कोई बहाना बनाकर शाम को ही मेरठ वापिस चली गयीं थीं
पर हर साल दोनों बच्चों के जन्मदिन पर , अनिल और सुमन के जन्मदिन पर,
उन दोनों की शादी की सालगिरह पर
माँ का भेजा उपहार जरूर से पहुँच जाता
कभी बच्चों के लिए स्वेटर , कैप , स्कूल बैग
कभी सुमन के लिए स्कार्फ़ ,शॉल
अनिल के लिए कभी स्वेटर कभी ग्लव्स और जाने क्या क्या
माँ हमेशा सब कुछ अपने हाथ से ही बना कर भेजती थी
जैसे अन्तर्यामी थी माँ
अपने अन्नी का मन पढ़ लेती और फिर वही बनाकर भेज देती थी
और फिर एक मनहूस दिन बड़े भैय्या का फोन आया
वो बहुत धीरे-धीरे बोल रहे थे
" माँ बीमार हैं अन्नी
तू आजा भाई "
भैय्या के स्वर का ठंडापन अनिल को अन्तर तक सिहरा गया था
आनन-फानन में अनिल मेरठ पहुँचा
माँ जा चुकी थी
माँ के बिस्तर के पास वाली मेज पर हाथ का बुना एक खूबसूरत नीला स्वेटर रखा था
भाभी ने बताया की माँ ने आज सुबह ही पूरा किया था
कह रहीं थी
" अन्नी के लिए बुन रही हूँ
उसका जन्मदिन आने वाला है ना
आएगा तो दे देना "
अचानक आकाश में बादल गरजे
और हड़बड़ा कर अनिल जी वर्तमान में वापस लौटे
और फूटफूट कर रोने लगे
आज भी उनका जन्मदिन है
जैसे ये बादल गरज-गरज कर माँ का आशीर्वाद अपने अन्नी पर बरसाना चाहते हों
अन्तर्यामी है "माँ"
उसके अन्नी को क्या चाहिए हमेशा पता लगा लेती है .
Thursday, April 29, 2021
कुछ ऐसा लिख पाऊं मैं | HINDI KAVITA
काश
कुछ ऐसा लिख पाऊं मैं
इस पल दो पल के जीवन में
इस जीवन की तख्ती पे
रह जाऊं मैं याद तुम्हे
जाने के भी बाद मेरे
इस जीवन की गंगा में।
Thursday, April 22, 2021
सूर्योदय अब बस होने को है | HINDI KAVITA
सूर्योदय अब बस होने को है
तुम स्वागत को तैयार रहो
कुछ पल की अब और कश्मकश,फिर ख़ुशियाँ
तुम ह्रदय से स्वीकार करो
उसके आने से छँट जाएगा हर अंधेरा
और फैलेगा प्रकाश चहुँ ओर
उस प्रकाश को अपने अंतर में भरकर
तुम प्रभु का आभार करो
सूर्योदय अब बस होने को है
तुम स्वागत को तैयार रहो।
Tuesday, March 23, 2021
अखवार का छठा पन्ना
अखवार के स्याह-सफ़ेद छठे पन्ने पर
कुछ obituary advertisement होते है
जहाँ कुछ मुस्कुराते ,कुछ गंभीर से चेहरे
छोटे-बड़े से बॉक्सों में पड़े रहते हैं
लगते तो ज़िंदा हैं ,मगर मुर्दे हैं , गड़े रहते हैं
वहाँ लिखी रहती हैं ,ढेर सारी सतही ,झूठी ,बेजान
निरर्थक सी बातें ,कुछ तो "बावजह" कुछ महज़ यूँही
उन जहर सी मीठी बातों का शतांश भर भी
कहा नहीं गया होगा उम्र भर में , कभी उनसे
पर आज तो संवेदना इस कदर उमड़ी है की
ढूंढ-ढूंढ कर किताबें और रिसाले दुनियाभर के
लिखा गया है इन शब्दों को इस कद्र करीने से के
शरमा जाए माननीय घड़ियाल जी भी ,अगर कहीं पढ़ ले इनको
पर मैं पाठक भी कहाँ कम हूँ इन so called लिखने वालों से
मैं अक्सर उन मुर्दों की उम्र का जोड़-घटा सा करता रहता हूँ
अपनी उम्र से उनकी उम्र का तुलन सा करता रहता हूँ
के मैं उस उम्र के कितने पास तक आ गया हूँ आज
और कहीं उनकी उम्र को भी पार तो नहीं कर गया हूँ आज
क्या मैं भाग्यशाली हूँ ? के आज भी ज़िंदा हूँ
या बस कुछ दिन और ,और फिर मुर्दा हो जाऊंगा
ये सोच के सिहर उठता हूँ, और कुछ कुछ शर्मिन्दा हूँ
फिर कभी सोचता हूँ की आखिरकार
क्यों ये विज्ञापन यहाँ छपवायें जाते होंगे
लविंग मेमोरी , unforgettable ,प्रार्थना सभा
वजह कोई प्यार है या कहीं कोई मजबूरी
या फिर कोई पारिवारिक/व्यवसायिक साज़िश जरूरी
या फिर अपने को महान दिखाने भर की कोशिश सी है
या फिर ये केवल अपनी जीत की घोषणा भर सी है
के देखो आखिर तुम चले ही गए ना और मैं ज़िंदा हूँ
उम्र भर जिस सरमाये पे इतराये से सीने से लगाए फिरते थे
लाख मांगने पर भी नहीं देते थे ,सांप से कुण्डलियाये फिरते थे
साथ नहीं ले जा पाए ना आखिर ?और आज , आज ये सब मेरा है
तुम्हारा दिन ढल चुका ,पर मेरा सवेरा है
तुम थे तो ये हैसियत कहाँ थी मेरी
तुम्हारे पैरों में पड़े रहना,बस नियति थी मेरी
भला हुआ तुम खुद ही मर गए वरना....
मैं मार देता तुमको, मेरी मजबूरी
अखवार के स्याह-सफ़ेद छठे पन्ने पर
कुछ obituary advertisement होते है
जहाँ कुछ मुस्कुराते और कुछ गंभीर से चेहरे
कुछ छोटे-बड़े से बॉक्सों में ,पड़े रहते हैं
लगते तो ज़िंदा से हैं ,मगर मुर्दे हैं , गड़े रहते हैं.
Sunday, March 21, 2021
"माशू"
एक प्यारी से लड़की है और
नाम है उसका "माशू"
आज वो 13 साल की हुयी तो
खुशी से आये आँसूँ
किसी की "मासू जीजी" है वो
और किसी की "मंटोला"
किसी का "मेरा बाबू" है वो
और किसी का "मोटा लाला"
टीचर्स की वो फेवरेट है
और उनका सारा काम वो करती
साहसी इतनी ज्यादा के
अपनी मम्मी से भी वो नहीं डरती
उसका प्यारा सपना है के
टीचर है उसको बनना
हम सबकी पूरी कोशिश है
उस सपने को पूरा करना
ये वादा हमारा,हम देंगे तुझको
प्यार,आज़ादी और विश्वास
आगे ही बढ़ते जाना तुझको
कोई दुःख कभी न आये पास
एक प्यारी से लड़की है और
नाम है उसका "माशू"
आज वो 13 साल की हुयी तो
खुशी से आये आँसूँ।
(मैंने ये कविता मेरी बेटी माशू के 13 वें जन्मदिन पर लिखी थी ,भूल गया था ,फेसबुक ने याद दिलाया। :)
Saturday, February 20, 2021
डोलू
डोलू
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प्यारी सी सुंदर सी
छोटी सी ,नाटी थी वो
शांत रहती पर खूब हँसती थी
सबके मन को भाती थी वो
डोलू मैं कहता था तो ,मुँह फुला
चिढ़ चिढ़ वो जाती थी वो
अपनी निश्चल हँसी से सारे घर को
उपवन बनाती थी वो
अमित से मिलकर तो वो
और भी सँवर गयी
अच्छी तो हमेशा से ही थी
अब और भी निखर गयी
सारे परिवार को वो आज
हंसकर खूब अच्छे से सम्भालती है
साल दर साल खुद को भी वो
पहले से और बेहतर बनाती है
मिलते ही उससे अब तो
आश्चर्य कुछ यूँ लगता है
क्या ये वोहि प्यारी सी
शांत सी बच्ची है ?
अरे भई अब तो ये एक
प्यारा सा चहचहाता पंछी है
पर कितना भी बदल जायें डोलू मे
मेरे लिए तो वो आज भी वोही
प्यारी सी सुंदर सी
छोटी सी ,नाटी थी वो
शांत रहती पर खूब हँसती थी
सबके मन को भाती थी वो
डोलू मैं कहता था तो ,मुँह फुला
चिढ़ चिढ़ वो जाती थी वो
अपनी निश्चल हँसी से सारे घर को
उपवन बनाती थी वो।