Sunday, May 31, 2020

वो बड़ के पेड़ वाली चुड़ैल,-4

" अच्छी लड़की के साथ बैठे हों तो एक घंटा एक सेकंड लगता है ,
पर जब धधकते अंगारे पर बैठे हों तो एक सेकंड एक घंटे के समान लगता है
यही सापेक्षिकता है "- "अल्बर्ट आइंस्टाइन  "

अरुण ने अल्बर्ट आइंस्टीन का ये सापेक्षिकता का सिद्धांत पढ़ा तो था
पर प्रैक्टिकली समझ में आज आया
नीना के साथ विम्पी की मुलाकात के बाद
उस मुलाक़ात के बाद अरुण तो जैसे नीना का ही हो गया था
कल ही की तरह आज रात भी वो ,
छत पे अपने पलंग पर लेटे-लेटे तारों को ही देख रहा था
आज उसे सब कुछ बहुत ही प्यारा
बहुत ही पाक लग रहा था
शायद यही सापेक्षिकता है :)
इसी मदहोशी में नीना के ख़्वाब देखते देखते कब वो सो गया
उसे याद नहीं
अगले दिन कॉलेज में खुलते ही उसे खुद ही इतंज़ार था
उस मधुर आवाज़ का "हे फ़्रेशी " का
और कुछ देर बाद उसका उस मधुर आवाज़ से सामना हो ही गया था
वो आज भी गार्डन एरिया में ही थी और
वो और उसके सारे दोस्त मिलकर आज भी फ़्रेशी स्टूडेंट्स की रैगिंग कर रहे थे
अरुण ने पाया की नीना और उसके दोस्तों ने ना किसी फ़्रेशी की इंसल्ट की और
ना ही किसी फ़्रेशी को कोई ख़ास परेशानी दी
उन सभी सीनियर्स का मकसद तो बस थोड़ा सा मनोरंजन और फ़्रेशी के साथ इंट्रो करने का था
अरुण भी उनके साथ बैठ कर खुद को सीनियर ही समझ रहा था
 आधा दिन कैसे पास हुआ ,अरुण को पता ही नहीं चला
आज फिर परसों की तरह कैंटीन में ही फ़्रेशी लोगों की वेलकम पार्टी थी
वही थीम थी
वही खाने का मेनू
पर अरुण के लिए आज सब कुछ बदला-बदला था
वो आज पार्टी को खूब एन्जॉय कर रहा था
वही इंग्लिश गाने उसे समझ में तो आज भी नहीं आ रहे थे
पर कानों को मीठे लग रहे थे
वो नीना और उसके दोस्तों के साथ ही उन्ही की टेबल पे बैठा था
तभी एक हैंडसम सा लड़का वहां आया
आते ही वो अरुण से बोला
"साले तू तो फ़्रेशी है ना
यहाँ क्यों बैठा है
उधर फ़्रेशी टेबल पे जाके बैठ "
वो चीख कर बोला था
अरुण को काटो तो खून नहीं
उसने दयनीय नज़रों से नीना की ओर देखा और उठने लगा
नीना ने उसका हाथ पकड़ के रोक लिया
गुस्से में बोली-
"रोनी क्या हुआ अगर वो यहाँ बैठ गया
  मैं लाई हूँ इसे "
 "मगर नीना तू  इन फ़्रेशी लोगों को सर पे चढ़ाएगी तो ये हमारी इज़्ज़त कैसे करेंगे "
रोनी बोला  था
नीना- "रोनी इज़्ज़त दिल से होती है जबरदस्ती नहीं"
रोनी - "नीना तू हर किसी ऐरे गैरे को ग्रुप में ले आती है
            ये तेरा नया स्टेपनी है क्या ? "
ये "स्टेपनी " शब्द सुनना था की नीना ने जो गालियां देनी शुरू की है रोनी को
और फिर रोनी ने भी नीना को
एक जबरदस्त शोर सा मच गया था वहां
रीना और रोनी दोनों एक दूसरे को इंलिश में तेज़ तेज़ जाने क्या-क्या बोल रहे थे
सारा ग्रुप उस दोनों को चुप कराने की कोशिश कर रहा था
अरुण को तो बस कुछ शब्द ही ठीक से सुनाई दे रहे थे
"बास्टर्ड ... बिच .... स्टेपनी ...... चीटिंग .... यू नो दिस .....  यू नो दैट "
अरुण को समझ नहीं आया के ये क्या हो रहा है
और क्यों ?
तो वो चुपचाप उठा और फ़्रेशी टेबल पे आकर बैठ गया
और दूर से ही उस हंगामे को देखता रहा
कुछ देर बाद उसने देखा की नीना और रोनी दोनों चुप हो गए हैं
फिर दोनों गले मिले
और फिर ..... ये क्या .....
दोनों ने किस भी किया
अरुण का दिल धक् से रह गया था
अब नीना और रोनी हँसते हुए उसी की और आ रहे थे
पास आकर नीना ही बोली थी-
अरुण इससे मिलो-
" ... मेरा क्रेजी बॉयफ्रेंड रोनी "- खुलकर हंसी थी वो
" बॉयफ्रेंड "
ये शब्द हथौड़े की तरह अरुण के दिल पे पड़ा
उधर रोनी ने खुद अरुण का हाथ पकड़ कर मिलाया और बोला -
"सॉरी मेट सॉरी फॉर दैट मिसअंडरस्टैंडिंग "
अरुण स्तब्ध सा वही खड़ा था
"ओके अरुण , कल मिलते हैं "
अरुण के गाल को छू कर एक मुस्कराहट बिखेरते हुए नीना ने कहा
और रोनी की उँगलियों में अपनी उँगलियाँ फसाये
उसके कंधे पे अपना सर टिकाते हुए
वो कुछ शरारती बात रोनी के कान में कह रही थी
और वो दोनों आपस में गुथे-सटे से नीना और रोनी
कैंटीन से बाहर की और बढ़ गए

अरुण सहमा स्तब्ध सा अपना सर पकडे
उसी फ़्रेशी टेबल की एक चेयर पर धम्म से बैठ गया
" क्या लड़की है यार ये 
बिलकुल चुड़ैल है ये तो "
वो धीरे से खुद से ही बोला था।





         





वो बड़ के पेड़ वाली चुड़ैल,-3

वो रात बड़ी क़यामत की रात थी अरुण के लिए

दिल्ली आने से पहले
घरवालों ने  कितना समझाया था अरुण को 
खूब मना किया था उसे 

"पटना में ही पढ़ ले 
कैसे रहेगा अकेला
 कोई है तेरा दिल्ली में  "

पर अरुण ने किसी की ना सुनी
उसे तो धुन थी दिल्ली में पढ़ने की 
और फिर यहीं अपना करियर बनाने की 
वो आ गया दिल्ली 
जितने पैसे थे उसमें उसे बस यही कमरा मिल सकता था 
एक लोअर मिडिल क्लास कॉलोनी के एक छोटे से घर की चौथी मंजिल पे बनी बरसाती 
इस कमरे की परेशानी ये थी की 
रोज़ आने-जाने के लिए चार मंज़िल सीढ़ियां उतरना-चढ़ना पड़ता था
पर यही इस कमरे की खासियत भी थी की 
इतना ऊपर चढ़ के कोई आता नहीं था 
तो पूरी प्राइवेसी थी 
और क्युकी बरसाती के आगे खाली छत थी 
तो वहां बैठकर सनराइज और सनसेट देखना 
बारिश में भीगने का आनंद भी मिल सकता था 

आज वो मजीद उदास था तो 
अपना फोल्डिंग पलंग खुले में ले आया था 
आसमान साफ़ था ,
आज थोड़ी बारिश हुयी थी तो 
तारे चमकते दिख रहे थे 
पर उसे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था 
वो देर तक लेटा हुआ आसमान में यूही तारों को ताकता रहा 
और जाने कब सो गया 

सुबह अलार्म से उसकी आँख खुली 
और वो कल का "ये कॉलेज छोड़ दूंगा "
वाला प्रण उसे याद भी ना आया 
जल्दी से तैयार हुआ 
और अपनी पहली क्लास के टाइम से पहले ही वो 
कॉलेज के अंदर था 

कॉलेज के गेट से अंदर घुसते ही जो पहली आवाज़ अरुण को आयी 
"हे फ़्रेशी। ... इधर "
फिरसे वही थी 
अरुण ने मुँह ही मुँह में बोला 
"ये साली चुड़ैल ...... "
 उसने देखा आज भी गार्डन में फ़्रेशी लोगों की रैगिंग हो रही थी 
"रोनी, एडी तुम इन सब की रैगिंग लो 
  इस फ़्रेशी की रैगिंग आज मैं लूंगी "
उसने अरुण की तरफ बढ़ते हुए अपने दोस्तों से कहा था 
वो पास आकर बोली 

"तुमने मुझे चुड़ैल कहा था ना अभी"
अरुण हैरान था ,उसने तो मुँह में ही बोला था 
ये चुड़ैल क्या मन भी पढ़ लेती है 

"नहीं ,...... पर आप मेरे पीछे क्यों पडी हैं 
 मैं तो एक .. .... "
अरुण की बात बीच में ही काटते हुयी वो बोली थी 
"हाँ  हाँ  ठीक है अब ये ज्यादा सिम्पैथी मत ले 
 गाड़ी चलानी आती है ? "
"जी "-अरुण बोला 
" ले चला "
उसने उसकी ओर चाबी उछाली 
"मगर मेरी तो आज पहली क्लास है अभी "- अरुण बोला 
"अबे रोंदू अभी रैगिंग डेज हैं ,क्लासेज अगले हफ्ते से शुरू होंगी "- वो फिर हंसी थी 
रास्ते भर वो कुछ ना कुछ बोलती ही रही 
और रास्ता भी बताती रही 
गाड़ी रुकी " विम्पी " के सामने 
अंदर आकर उसी ने आर्डर दिया और पैसे भी 
दोनों अब आमने सामने बैठे थे 
वो अब कुछ संजीदा सी चुप सी लग रही थी ,
अचानक उसने धीरे से अरुण का एक हाथ अपने दोनों हाथों में लिया 
अरुण ने घबरा कर इधर-उधर देखा 
वो बड़ी संजीदगी से बोली थी -

" अरुण मैं कल के लिए माफी माँगती हूँ 
   क्या करुँ यार मैं ऐसी ही हूँ 
   पर तुम शायद कल ज्यादा ही फील कर गए  
   रियली सॉरी यार 
   फ्रेंड्स ......  ?  "

उसने बच्चो जैसी मासूम मुस्कान के साथ उसका हाथ छोड़कर 
अब अपना हाथ अरुण की ओर बढ़ाया था 
और अरुण तो उसकी उस मुस्कान में 
उसकी बातों में 
या जाने उसका क्या जादू था 
अरुण का मन बंध गया था 

अरुण ने भी अपना हाथ आगे बढ़ाया 
उसने तीन-चार बार अरुण का हाथ जोर से हिलाने के बाद 
"फ्रेंड्स फॉर लाइफ " कहकर हँसते हुए उसका हाथ छोड़ दिया था 

अरुण को ऐसा लगा के उसका खूबसूरत वजूद अभी भी उसके हाथ पर 
उसके दिल में ठहर गया है 

वो अब मज़े से अपनी आइस-क्रीम खाये जा रही थी 
और लगातार जाने क्या-क्या कॉलेज की ,
दुनिया जहान की बातें भी किये जा रही थी  ,
इधर अरुण की आइस-क्रीम भी पिघलती जा रही थी 
और अरुण का दिल भी 
वो चुपचाप 
एकटक 
बस उसे बातें करते हुए देखे जा रहा था। 


वो बड़ के पेड़ वाली चुड़ैल,-2

थोड़ी देर बाद ही अरुण कॉलेज कैंटीन में
सीनियर्स द्वारा आयोजित फ़्रेशियर्स पार्टी में था
खाने के लिए ऐसे ही कुछ कुछ
पाइनएप्पल पेस्ट्रीज,समोसे,ब्रेड पकोड़ा, चाउमीन और चाय,कॉफ़ी और ठंडा था
वही कुछ फ्रेशेर और सीनियर गिटार पे कोई इंग्लिश गाना गा रहे थे
अरुण ने बहुत कोशिश की पर
गाने का एक भी शब्द उसे समझ नहीं आ रहा था
उसने तो कभी कोई इंग्लिश गाना सुना ही नहीं था

वो वहां उस पार्टी में सबके बीच होकर भी
दिल से बिलकुल भी वहां नहीं था
उसे बार-बार फिर वही थोड़ी देर पहले वाली पूरी घटना
दिमाग में फिल्म की तरह चल रही थी
बड़ी विचित्र सी मिक्स सी फीलिंग थी
शॉक,बेइज़त्ती ,सबसे अलग होने का एहसास
उसने अपने चारों और नज़र घुमा के देखा
सभी एक से एक खूबसूरत लोग
जीन्स-टी शर्ट
महंगे स्पोर्ट्स जूते पहने
ड्रायर किये ,बगैर तेल लगाए रूखे स्टाइलिश बाल
और उसके अपने कपडे
बहुत ही मामूली लग रहे थे उसे वो
शर्ट पेंट पहने वो अकेला ही था वहाँ
और जो अब घास और मिटटी लगने के बाद बहुत ही भद्दे दिख रहे थे
और उसने चमड़े के कोई पुराने से जूते पहने थे
पोलिश की मोटी परत भी उनके पुराने होने की कहानी छुपा नहीं पा रही थी
मन ही मन अपनी अच्छे से खुद ही लानत-मलानत करने के बाद
उसे जो पहली ख्याल आया
वो था उन भूरी आँखों का
जिन्होंने उसकी ये सारी मट्टी पलीत कराई थी
उसने खूब नज़र दौड़ाकर पूरी कैंटीन में हर तरफ देखा
उसे ना वो आँखें
ना वो आँखों वाली लड़की कहीं दिखाई दी
भूखा था तो ,फ्री का खाना भरपेट खाया
चाय भी पी
और चुपचाप किसी से बात किये बिना वो कैंटीन से बाहर निकल गया
कॉलेज ऑफिस गया
अपने लेक्चर्स का डिटेल लिया
और घर जाने के लिए कॉलेज के गेट की और बढ़ गया

अभी वो गेट तक पहुंचा भी नहीं था की
पीछे से एक कार तेज़ी से आकर उसके बिलकुल पीछे
बस कुछ इंच दूर रुकी
टायरों के रुकने की ,ब्रेक की आवाज़
इतनी तेज़ और भयानक थी की
अरुण को लगा आज तो वो गया
डर कर अरुण वहीं बुत बना खड़ा रह गया था
अपने दोनों हाथ उसने कस कर अपने कानों पे रख लिए थे
उसकी आँखें भी बंद हो गयी थी
कुछ पल बाद किसी की हँसी और बार-बार ये कहना
"सॉरी सॉरी सॉरी
  आई ऍम रियली वैरी सॉरी
  प्लीज मुझे माफ़ कर दो "
ये दोनों ही बातें उसे एक साथ सुनाई दे रही थी
ये फिर वही भूरी आँखों वाली थी
अबकी बार हँसी केवल आँखों से नहीं
बल्कि उसके पूरे वजूद से खिलखिला रही थी
वो एक तरह खिलखिलाकर हॅंस भी रही थी
और बार-बार माफी भी मांग रही थी
अरुण गुस्से,शर्म,अपमान सब भावनाओ से एक साथ गुजर रहा था
वो आपा खो बैठा
"आप सीनियर हो तो क्या जान ले लोगी "
अरुण बोलते-बोलते हांफ रहा था
पर पूरी आवाज़ में चीख कर बोला था
"अले ले ले ले ,
  मेला बच्चा
  मेला बाबू
  चल आजा
  पानी पी ले
  छोटे बच्चे गुस्सा नहीं करते "

वो अपनी गाड़ी से पानी की बोतल निकाल कर देते हुए
अरुण से ऐसे बोली थी
जैसे अरुण कोई छोटा बच्चा हो और वो खुद उसकी दादी अम्माँ
अरुण अब बुरी तरह चिढ़ चुका था
पर खुद पे कण्ट्रोल कर वो धीरे से बोला
"मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए
प्लीज अब आप मुझे माफ़ कीजिये "

अरुण सचमुच हाथ जोड़ते हुए बोला था
वो फिर से हँसी , बोली-

"चलो बाबा सॉरी
  आ तुम्हे घर छोड़ देती हूँ "

अरुण ने उसे घूर कर देखा

"जी नहीं .......शुक्रिया "

उसने फिरसे दोनों हाथ जोड़कर बोला था

उसे फिर से गुस्से से घूर कर देखते हुए अरुण तेज़ क़दमों से कॉलेज गेट से बाहर निकल गया
और गेट के बिलकुल बाहर बने बस स्टैंड पर जाकर बैठ गया
वो समझ नहीं पा रहा था के ये उसके साथ क्या और क्यों हो रहा है
तभी उसने एक हॉर्न सुनकर सर उठाकर देखा
ये फिर वही थी
अपनी कार में से उसे हाथ हिलाकर वेव कर रही थी
वही खिलखिली हँसी उसके चेहरे पे थी
अरुण ने ना कोई वेव का जवाब दिया
बस मुँह फेर लिया था

अरुण ने मन ही मन फैसला कर लिया था की
वो ये कॉलेज छोड़ देगा।

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वो बड़ के पेड़ वाली चुड़ैल,-1

वो अचानक जाने कहाँ से ,
एक झटके से एकदम से सामने आकर खड़ी हो गयी थी

"नीना तुम ...
ये सचमुच में तुम ही हो "
लॉन्ग टाइम नो सी "

अरुण लगभग चीखते हुए बोला था

" हाँ मैं ही हूँ वही प्रेसीडेंसी कॉलेज के बड़ के पेड़ वाली चुड़ैल "

नीना ने उसी अपने चिरपरिचित पुराने अंदाज़ में खिलखिलाते हुए कहा था
और फिर अरुण और नीना जाने कितनी देर तक जोर-जोर से हँसते रहे थे

कभी किसी एक पूरे ज़माने पहले
नीना और अरुण एक ही कॉलेज में पढ़ते थे
अरुण उसी साल पटना से दिल्ली पढ़ने आया था
और नीना वही दिल्ली में पैदा हुयी थी और
अपने एसएच्ओ पापा को मिले पुलिस कॉलोनी के
एक बड़े सरकारी घर में रहती थी

अरुण को अच्छे याद है की वो उसका कॉलेज में पहला दिन था
बिहार बोर्ड से बारहवीं पास करके पटना से दिल्ली पढ़ने आया हुआ वो लड़का
गोरा ,मगर नाटे से कद का था
वो बीच से मांग निकाल के अपने बाल दोनों तरफ करके बनाता था
उसके बालों में इतना तेल होता था की
पन्ना पलटने के लिए स्कूल में दोस्तों ने उँगलियों पर थूक लगाना बंद कर दिया था
बस उसके बालों में हाथ लगाओ और चाहे जितने पन्ने पलटो :)
अपने कॉलेज के पहले दिन
वो अपने सबसे अच्छे कपडे पहनकर
अपने बालों को दोनों ओर ठीक करता हुआ अभी कॉलेज में गेट के अंदर घुसा ही था की
वही हुआ जिसका डर था
कुछ आवाज़े एक साथ आयी

"ऐ फ़्रेशी
 हाँ अबे तू ही
 सरसों के तेल की दूकान
 इधर आ  "

सीनियर्स के उसको अपने पास गार्डन में बुला लिया था
अरुण ने देखा वहां उसके जैसे और भी कई फ़्रेशी भीगी बिल्ली बने खड़े थे
और उनके बिलकुल सामने करीब 20 -30 सीनियर्स
वहीं घास पे आलथी-पालथी मार के बैठे थे
जब उसका नंबर आया तो
एक सीनियर बोला -

" ए फ़्रेशी वो पेड़ दिख रहा है "
वो दूर एक बड़ा सा बड़ का पेड़ था
" जी "
"उस पेड़ तक जाना है
गुलाब का फूल तोड़ के लाना है "
अरुण चकरा गया था
वो मिमयाती हुए बोला
"सर ..बड़ ..के ..पेड़.. पे.. गुलाब ..का... फूल "
" हाँ ", वो सीनियर जोर से चिल्लाया था
"अब भाग के जा "
अरुण बेचारा मरता क्या ना करता
वो भागा
और सीधा उस बड़े से
घने बड़ के पेड़ के नीचे ही आकर रुका
वो पेड़ इतना घना था की उसके नीचे बिलकुल घुप अन्धेरा था
वो बड़ा भयानक लग रहा था
ऐसा जैसे कोई काली चुड़ैल हो
जिसके लम्बे-लम्बे बाल जमीन तक लटक रहे हों
अरुण अभी बेवकूफों की तरह उस पेड़ को दायें-बायें ,
ऊपर-नीचे देख ही रहा था की
कोई भारी चीज़ अचानक से उस के ऊपर आकर गिरी
वो पीठ के बल गिरा था
और वो भारी चीज़ उसके सीने पे सवार थी
और तभी चारों और से शोर आना शुरू हो गया

"अरे काली चुड़ैल आ गयी रे "
"अरे काली चुड़ैल आ गयी रे "

अरुण ने डर के मारे अपनी दोनों आँखें कसकर बंद कर ली थी
और वो हाथ जोड़कर जोर-जोर से हनुमान चालीसा का जाप कर रहा था

"भूत-पिचाश निकट नहीं आवै ,महावीर जब नाम सुनावै
  जल तू जलाल तू आयी बाला को टाल तू "
"भूत-पिचाश निकट नहीं आवै ,महावीर जब नाम सुनावै
  जल तू जलाल तू आयी बाला को टाल तू "

जाने कितनी देर वो ऐसे ही करता रहा
कुछ देर बाद उसने महसूस किया की वो भारी पथ्थर उसके सीने से हट गया है
सारी आवाज़े भी आनी बंद हो गयी हैं
अब बस कुछ लोगों के हंसने की आवाज़ें आ रही थी
उसने डरते-डरते धीरे से एक आँख खोल कर देखा तो
देखा
सामने एक लड़की खड़ी मुस्कुरा रही है
और उन दोनों को घेरे 20 -30 लड़के-लड़कियों का ग्रुप जोर-जोर से हँस रहा है

अब अरुण की समझ में आया की उसका तो बहुत बड़े वाला काटा गया है :)

वो भी खिसयाते हुए
अपने कपडे झाड़ता हुआ खड़ा हुआ
और नकली हँसी हंसने लगा
जैसे की कुछ हुआ ही ना हो
भारी पथ्थर
मतलब की उस सामने खड़ी लड़की ने मुस्कुराते हुए अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा था

"हाय , आई ऍम नीना "
  नीना चौधरी "

अरुण ने भी डरते डरते अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा

" जी... जी मैं अरुण ....अरुण झा "

उस लड़की ने बड़े प्यार से उससे हाथ मिलाया
और फिर थोड़ा सा पीछे हट के खड़ी हो गयी
और फिर सब लड़के-लड़कियाँ एक-एक करके आते गए
हाय ,हेलो करते गए
वो सब अपना-अपना नाम भी बता रहे थे
आई ऍम दिस , आई ऍम दैट ...ब्ला ब्ला ब्ला
कोई हाथ मिला रहा था
कोई गले मिल रहा था
कोई कंधे पे थपकी दे रहा था
कोई कोई अरुण को दोनों कन्धों से पकड़ के हिला भी रहा था
अरुण ने ना तो किसी को देखा
और ना ही उसे कुछ सुनाई दे रहा था
उसकी आँखे जैसे लॉक हो गयी थी
उन भूरी आँखों के समंदर में
जो उसके ठीक सामने खड़ी लगातार उसे ही देखें जा रही थी
और मंद-मंद मुस्कुरा रहीं थी
अरुण के कानों में एक ही आवाज़ बार-बार गूँज रही थी

""हाय , आई ऍम नीना "
   नीना चौधरी "

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दोस्तों ये था कहानी
"वो बड़ के पेड़ वाली चुड़ैल"
का पहला भाग
अगर आप चाहेंगें तो मैं इस कहानी के दूसरे ,तीसरे,चौथे .... :)
जहाँ तक आप चाहेंगे मैं लिखूंगा :)




Saturday, May 30, 2020

आपने कभी मेरे लिए किया ही क्या है

"आपके बेटे विपिन ने आपको थप्पड़ मार दिया "
"ये आप क्या कह रहे हैं चाचाजी "

फोन पर सतप्रकाश जी की बात सुनकर लगभग चीखते हुए कहा था मनु ने
उसका फोन उसके हाथ से छूटते -छूटते बचा था 
उधर दूसरी ओर फोन पर सतप्रकाश जी छोटे बच्चे की तरह लगातार रोये जा रहे थे 
पता नहीं वो मनु की कोई बात सुन-समझ भी रहे थे या नहीं 
मनु देर तक उनको सांत्वना देता रहा 
पर जब वो चुप हो ही नहीं रहे थे तो 

उसने -" अभी तो रात काफी हो गयी है 
              मैं कल सुबह आता हूँ चाचाजी "

धीरे से बस इतना कहकर ,
भरे मन से मनु ने फोन रख दिया था 

असल में सतप्रकाश जी , मनु की पत्नी नेहा के चाचा थे 
सतप्रकाश जी की पत्नी का देहांत हो चुका था 
और अब वो अपनी इन्कमटैक्स अफसर की पोस्ट से भी रिटायर हो चुके थे 
वैसे तो मनु का सतप्रकाश जी से कोई इतना पास का रिश्ता नहीं था
पर सतप्रकाश जी के स्वाभाव की सरलता कहिये या फिर 
उनका टैक्स मामलों का जानकार होना 
मनु पहली मुलाक़ात में ही उनसे बहुत प्रभावित हुआ था 
सतप्रकाश जी अक्सर मनु को फोन करते थे
और मनु को भी उनका फोन आना अच्छा लगता था 
क्योकि मनु को हमेशा कुछ नया सीखने को ही मिलता था
पर ये आज का फोन तो सचमुच में विचलित करने वाला था 
बिस्तर पे पड़े-पड़े मनु को अपना दिमाग घूमता सा लग रहा था 
बार-बार एक ही सोच उसके दिमाग में  थी की 
ये क्या अनहोनी है 
विपिन थोड़ा गुस्से वाला तो था पर अपने ही पिता पर हाथ उठाना ...
कैसे ......और क्यों ...
इसी उधेड़बुन में रात भर वो करवटें बदलता रहा 
क्या कारण होगा ?
ये सब क्यों हुआ होगा ?

किसी तरह रात कटी 
सुबह के आठ बजे ही मनु सतप्रकाश जी के घर पहुंच गया 
दरवाज़ा विपिन ने ही खोला था 

"नमस्ते जीजाजी "

विपिन ने आँखे चुराते हुए धीरे से बोला था 

"नमस्ते"

मनु ने उसे बुरी तरह घूरते हुए लगभग मुँह ही मुँह में बोला 
विपिन को इसका ठीक अंदाज़ा था 
इसीलिये वो आज मनु से आँखें ही नहीं मिला रहा था 
उस बैठक में नितांत खामोशी थी 
उन तीनो के अलावा बाकी हर आवाज़ साफ-साफ सुनाई दे रही थी
पंखे के घूमने की, अंदर किचन में बनती चाय का पानी उबलने की 
यहाँ तक की बाहर बालकनी में चहचहाती चिड़िया की भी  
एक तरफ मनु और सतप्रकाश जी बैठे थे 
और उन दोनों के बिलकुल सामने अपराधियों की तरह सर झुकाये , विपिन 
वो लगातार जमीन को ही देखे जा रहा था 
आखिरकार मनु को ही बोलना पड़ा 
वो काफी सख्त लहज़े में बोला था 

"ये मैं क्या सुन रहा हूँ विपिन "

कुछ देर की खामोशी के बाद विपिन ने धीरे-धीरे बोलना शुरू किया 

"आपने ठीक सुना है जीजाजी "
"पर मैं शर्मिन्दा नहीं हूँ "

मनु अवाक सा विपिन को देख रहा था 

वो गुस्से में कुछ बोलता इससे पहले ही विपिन ने फिर बोलना शुरू कर दिया 

"इस आदमी ने मेरी जिंदगी तबाह की है 
अरे बाप का फ़र्ज़ होता है अपने बेटे के लिए कुछ करना 
पर इस आदमी ने कभी बाप का फ़र्ज़ निभाया है ?
क्या दिया है इसने हमें पूरी जिंदगी 
झूठी ईमानदारी की खोखली जिंदगी 
अरे इसके ऑफिस के चपरासी भी आज पॉश कॉलोनियों में कोठियां बनाये बैठे है 
और हम इस स्लम में पचीस गज़ के मकान में सड़ रहे हैं 
आपको पता है मेरी माँ क्यों मर गयी ?
इसकी वजह से 
इसने मारा धीरे-धीरे उसके सपनों को 
उसकी इच्छाओं को 
इसको तो भगवान् बनना था ना 
तो ये बन गया 
मेरा इन्कमटैक्स में सिलेक्शन हो रहा था 
इसको बस एक फ़ोन करना था अपने ऑफिस में 
पर ये तो गांधी जी का अवतार है ना 
नहीं किया
अब दस साल से सड़ रहा हूँ अब एक पंद्रह हज़ार की प्राइवेट नौकरी में 
जीजाजी, मैंने सह लिया 
पर कल इसने मेरे बेटे के साथ भी वही किया 
दिल्ली स्कूल में प्री-नर्सरी  में एडमिशन कराना था आदि का
डोनेशन कहाँ है मेरे पास 
तो मैं प्रिंसिपल से मिला 
वो बोलीं के -"एक इन्कमटैक्स का छोटा सा प्रॉब्लम है हमारा 
आप करा दो,
मैं बगैर डोनेशन एडमिशन कर दूंगी "
अब वो लगभग चीखते हुए दांत पीसते हुए सतप्रकाश जी को घूरते हुए बोला 
"मैं अफसर से भी मिल आया ,वो इनका पुराना जूनियर 
वो बोला - "कोई दिक्कत ही नहीं है, आप बस सर से फोन करा दो "
"इस कमीने से इतना नहीं हुआ की बेटे का जीवन तो खराब किया 
कम से कम पोते के लिए तो कर देता 
इसने फिर नहीं किया " 
"हम दोनों मियां-बीवी ने कल रात इसके खूब हाथ जोड़े 
पैर पड़े 
पर मजाल है ये गांधी बाबा का चेला टस से मस भी हो जाए "
फिर जीजाजी मुझसे रहा नहीं गया और मेरा हाथ ..... "

(अब वो बहुत धीरे से मगर शांत, सधे स्वर में बोला था )

विपिन की आवाज़ में कोई पछतावा नहीं था 
ऐसा लग रहा था जैसे उसने कोई वर्षों से लंबित इन्साफ किया हो 
तभी पीछे से विपिन की पत्नी सुमन आयी 
वो चाय टेबल रखते हुए धीरे से बोली 

"जीजाजी अब हम थक गए है 
  पापाजी के आदर्शों के साथ अब सांस भी लेना हमारे लिए मुश्किल है 
मेरे भैया का बड़ा कारोबार है 
वो तो सालों से कह रहे थे की -
"जब प्राइवेट नौकरी ही करनी है तो मेरे यहाँ ही कर लो 
हम तो बाबूजी की वजह से नहीं जा रहे थे 
पर अब और नहीं 
भैया की फैक्ट्री में ही दो रूम का सेट बना हुआ है 
हम वहीँ रह लेंगे और ये फैक्ट्री सुपरवाइजर का काम देख लेंगे "

मनु ने मुड़कर सतप्रकाश जी की ओर देखा 
उन्होंने दोनों हाथों से अपने चेहरे को ढका हुआ था 
वो लगातार फूट-फूट कर रोये जा रहे थे 

मनु खुद कंफ्यूज हो गया था की 
यहाँ  कौन अपराधी है ?
और वो किसको क्या समझाये 

"चाचाजी .....मैं आपसे बाद में मिलता हूँ "

ये कहकर मनु धीरे से उस घर से बाहर निकल गया 
अपनी गाड़ी में बैठा वो खुद पता नहीं कितनी देर तक 
फूट-फूट कर रोता रहा 
उसके कानों में बार-बार अपने खुद के कहे शब्द गूँज रहे थे 
जो उसने कभी बरसों पहले अपने पापा को कहे थे 

"आपने कभी मेरे लिए किया ही क्या है 
  अरे बाप तो ऐसे होते हैं की ..........   "

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पांच परमेश्वर ,दो मशीनें


सरस्वती एक बड़ा ही आम सा ,
साधारण सा किरदार है

अगर आपने कभी भी अपनी दादी-नानी के जीवन को सुना होगा तो पाएंगे की
उस समय की हर दुसरी-तीसरी लड़की में कम या ज्यादा
पर थोड़ी सी सरस्वती तो हर किसी में मौजूद है

सरस्वती करीब 1930 में एक साधारण से परिवार में जन्मी
15 -16 वर्ष की उम्र में ब्याह दी गयी
अब पांच जमात तक पढ़ गयी थी
खाना बनाना, चौका-बर्तन
सिलना,काढ़ना भी सीख लिया था
पांच छोटे भाई बहन भी थे ,
तो माँ कैसे बनते हैं
वो ट्रेनिंग भी पूरी हो चुकी थी
अब और क्या बाकी था सीखने करने को
एक मशीन बिलकुल तैयार हो चुकी थी
बच्चे पैदा करने -पालने
और घर का चौका-चूल्हा सँभालने लायक भर
तो ब्याह दी गयी
अपने से करीब दस वर्ष बड़े सजातीय को

पति साक्षात परमेश्वर थे
दिन में नौकरी करना
शाम होते ही अन्य देवताओ की तरह रोज़ सोमरस पान
और अन्य स्त्रियों का उद्धार
अब भद्र पुरुषों को इन सभी पुण्य कर्मों की इज़ाज़त तो हर धर्म में है

पर हाँ परमेश्वर आये चाहे देर रात
या अगले दिन सुबह तड़के
अपना पति धर्म निभाना वो कभी नहीं भूलते थे
सो एक के बाद एक 8 संताने वो भी केवल अगले 12 वर्षों में
उन्होंने सरस्वती की झोली में डाल दी थी
उनकी कृपा से सरस्वती की झोली इतनी भरी इतनी भरी की
बस अब फटी बस तब फटी
वैसे सरस्वती को ज्यादा परेशानी बस 4 बच्चो तक ही हुयी
क्युकी उसके बाद तो सबसे बड़ी बेटी शारदा
सात बरस की हो गयी थी तो
एक और छोटी सी मशीन तैयार हो रही थी
उसे भी तो आखिर जल्द ही तैयार होकर पराये घर जाना था
तो आने वाले बच्चे भी पले जा रहे थे
और शारदा की ट्रेनिंग भी हो रही थी
सब कुछ शान्तिपूर्वक और पूर्वनियोजित ढर्रे पर चल रहा था

बस थोड़ी सी परेशानी ये शुरू हुयी की अब
घर में खाने वाले 12 लोग हो गए
(सास-ससुर भी तो थे )
पति परमेश्वर तो पहले ही सोमरस के दीवाने थे तो कुछ
उनकी सोमरस के प्रति दीवानगी थी
और कुछ पर-स्त्रियों का उद्धार करते रहने का
उनका कर्तव्य
कमाई लगातार गिरती जा रही थी
खर्चा बढ़ता जा रहा था
तो उसका भी रास्ता ये निकला
के सरस्वती के दहेज़ में आयी सिलाई मशीन से
जिसने अब तक बस सारे परिवार के ही बच्चों-बड़ों के सारे कपडे सीए थे
उसको भी और काम दिया गया
अब उसने सारे पड़ोस के बाल-बच्चों के कपडे,
स्त्रियों के ब्लाउज़, पेटीकोट, पुरुषों के कच्छे
भी सीने शुरू कर दिए थे
अब घर में ढाई मशीनें थी
डेढ़ हाड मांस की और
एक लोहे की
बहुत कुछ ज्यादा फ़र्क़ तो नहीं आया था
बस इतना था के ये ढ़ाई मशीनें दिन के चौबीस घंटे काम कर रही थी

समय एक मंथर गति से बीत रहा था
चारों बेटे पांचवी के बाद छठी कक्षा में
और बेटियां सरस्वती के ट्रेनिंग स्कूल में
दाखिला ले रहे थे
एक समय तो ऐसा अच्छा भी आया की घर में छ: मशीनें हो गयी थी
पांच हाड-मांस की और एक लोहे की
इन सब में जान हलकान हो रही थी लोहे वाली मशीन की
उसको तो कोई दम ही नहीं मिल रहा था
कभी सरस्वती ,कभी शारदा,कभी छुटकी ,कभी बड़की ,कभी मंझली
ये पाँचो ने उसका जीना मुहाल किया हुआ था
एक उठती थी तो दुसरी बैठती थी ,फिर तीसरी,चौथी,पांचवी
वैसे उस वक़्त का लोहा भी कमाल का ही रहा होगा
और हाड-मांस तो उस लोहे से कहीं आगे
इतने सालों लगातार ये सिलाई मशीन बिना रुके दिन-रात चलती ही जा रही थी
जैसे सरस्वती के साथ-साथ ,
पूरे परिवार का बोझ उठाने का सारा ठेका इसी ने लिया हुआ हो

अच्छे दिनों का ये क्रम टूटा शारदा की शादी से
पहले वो अपने घर गयी
फिर उसके बाद एक-एक करके सारे लड़के अपनी पढ़ाइयों के लिए पास के शहर में
और लड़कियाँ अपनी ट्रेनिंग पूरी करते ही
किसी पराये घर की मशीन बनने

अब घर में बस दो मशीनें और एक टूटा हुआ बीमार परमेश्वर रह गया था
उसके शरीर ने बहुत उद्धार किये थे
देवता होने का फ़र्ज़ भी खूब शिद्दत से निभाया था तो
अब काफी थक गया था
तो अब सारा दिन घरपर पर ही रहकर
सरस्वती को दिव्य ज्ञान दिया करता
वैसे ठीक ही चल रहा था
दो मशीने थी और खाने वाले भी बस तीन ही रह गए थे
( क्युकी अब तक सास-ससुर स्वर्ग का आनंद उठा रहे थे )
तो खाना का इंतज़ाम तो हो ही जाता था

दिक्कत तब होती थी जब
अलग-अलग शहरों में रह रहें चारोँ छोटे परमेश्वरों में से कोई सरस्वती को याद करता
पर पता नहीं ऐसा क्या इत्तेफ़ाक़ था की
ऐसा तभी होता जब उनकी पत्निया पेट से होती
हर बार उन दो महीनों में सरस्वती को तो कुछ ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता था
क्युकी उसके लिए तो ये रोज़ जैसा ही होता था
वही मशीनी जीवन ,
अब मशीन दिल्ली में चले या मुंबई में
क्या फ़र्क़ पड़ता है
बड़े परमेश्वर के घर नहीं तो छोटे परमेश्वरों के घर ही सही
पर उन दिनों में बड़े परमेश्वर बड़े व्याकुल हो जाते थे
उनको अकेले खुद अपना खाना बनाना,कपडे धोना जो करना पड़ता था  ,

अब कहाँ परमेश्वर और कहाँ ये सब तुच्छ काम...

ऐसी ही एक बार जब सरस्वती अपने तीसरे नंबर के परमेश्वर के यहाँ बच्चा जनवाने में थी
तो खबर आयी
बड़े परमेश्वर चले गए
तब चारों छोटे परमेश्वर ,चारों छोटी मशीनें और उनके बड़े-छोटे सारे परमेश्वर-मशीनें एकत्रित हुए थे
संस्कार हो गया था
सरस्वती की सारी छोटी मशीने जा चुकी थी
बैठक में सरस्वती के चारों छोटे परमेश्वर आपस में बात कर रहे थे

छोटे परमेश्वर 1 -" मैं ले तो जाता पर मुंबई में 4 ही कमरे का ही तो फ्लैट है
                           एक हमारा, दो बच्चों के ,एक गेस्ट रूम , 
                           अब जैसे हम पले इस दबड़े में वैसे अपने बच्चों को तो नहीं पाल सकते ना "

छोटे परमेश्वर 2 - "दिल्ली तो तुम जानते ही हो ,
                           कितना पोलुशन है वहां
                           माँ को सांस की बीमारी है
                           अब माया भी कितनी एलर्जिक है
                           और वैसे भी दोनों की...
                           तुम लोग तो जानते ही हो "

छोटे परमेश्वर 3 - "मैं ले जाता हूँ
                           पर मेरी एक शर्त है
                           इस मकान को बेच कर सारा पैसा मैं लूंगा
                           बाकी तुम लोग देख लो  "

ये सुनते ही चौथा छोटा पमेश्वर जो अब तब तीनों बड़े भाइयों को शांति से सुन रहा था,
सात साल में पहली बार भारत आया था
चीखते हुए बोला -
                            "कितने कमीने हो तुम तीनों
                             मैं अगर अमेरिका में ना रह रहा होता ना
                             तो मैं माँ को कभी यहाँ नहीं छोड़ता
                             अरे मैं तो दूर हूँ , विदेश में हूँ  ,आ नहीं सकता
                             पर तुम तो यहीं हों ना
                             जब भी माँ को फोन करता हूँ ,
                             बीमार होती है
                             तुम में से कोई डॉक्टर को भी नहीं दिखाता उसे "

और उसके बाद सरस्वती के वो चारों छोटे परमेश्वर ,
जोर-जोर से चीख-चीख कर एक-दूसरे को जाने क्या-क्या दिव्य ज्ञान देने लगे

अंदर कमरे में खड़ी सरस्वती ने मुड़ कर अपनी सिलाई मशीन की तरफ देखा
सिलाई मशीन तो पहले से ही एकटक उसी की ओर देख रही थी
दोनों सखी एक दूसरे को देख कर हँसी
एक पूरा युग साथ बिताया था उन्होंने
दोनों एक-दूसरे के मन का कहा-अनकहा खूब समझती थीं
मन ही मन दोनों ने अपनी-अपनी हाड-हड्डियों का परीक्षण-निरीक्षण किया
दोनों ने बस इतना ही सोचा

अभी और कुछ साल साल चलना होगा।
                           






Thursday, May 28, 2020

मनु की कॉलोनी का सलमान खान

मनु, इस संभ्रांत कॉलोनी में करीब 28 साल पहले 1992 में रहने आया था
इस कॉलोनी में आकर वो भाँती-भाँती प्रकार के लोगों से मिला
अच्छे-बुरे
झूठे-सच्चे
शांत -भयंकर गुस्से वाले लड़ाकू
साम्प्रदायिक-लिबरल
कुछ अपने मुँह खुद मिया मिठ्ठू बनने वाले
कुछ विभीषण टाइप
कुछ जयचंद सरीखे भी :)

पर राम उनमें सबसे अलग
किसी और ही मिटटी का बना हुआ इंसान था
राम, मनु के बिलकुल सामने वाले घर में रहता था
तो चाहे-अनचाहे अक्सर दोनों की मुलाकात हो जाती थी
राम का व्यक्तित्व इतने कमाल का के मनु ने राम को

" हमारी कॉलोनी का सलमान खान "  नाम दे दिया :)

उसने ये नाम कोई इसलिए नहीं दिया था की मनु
सलमान खान को कोई बहुत बढ़िया इंसान मानता था
या उसका फैन था
बल्कि इसलिए की 55 साल की उम्र में भी सलमान खान ने जिस तरह
अपने आप को इतना फिट और हैंडसम बनाये रखा है
वो मज़ाक थोड़े ही है :)
पर हमारा राम तो सलमान खान से भी चार कदम आगे था
सलमान खान जो काम अपनी 50 लोगों की टीम की मदद से
लाखों रूपये महीने खर्च करके करता है
हमारी कॉलोनी का सलमान खान ,राम आज साठ साल की उम्र में भी
अपने आप को उससे भी अच्छा मेन्टेन कर लेता था
वो भी बिना किसी स्टाफ या ज्यादा महँगे खर्चे के
वो जब अपने लम्बे कसरती शरीर पर बेहतरीन कपडे, उम्दा सनग्लास,
चमकते हुए पॉलिशड जूते, गले में स्कार्फ़, चिकनी शेव पर साउथ इंडियन हीरो स्टाइल भारी मूंछे
के साथ खुद अपनी इन्नोवा कार चलाते हुए निकलता
तो कॉलोनी का हरेक बन्दा कहने पे मज़बूर हो जाता की

"राम तो हमारी कॉलोनी का सलमान खान है "

राम यारों का यार था
सबसे मेल-जॉल रखना
घर आये व्यक्ति को जितना राम सम्मान देता था,
आवभगत करता था, कम ही लोग कर पाते हैं
किसी विवाद में हमेशा सही मगर कमज़ोर इंसान का पक्ष लेना
और फिर उसे पूरा संरक्षण भी देना
यहाँ तक की कॉलोनी के आधे आवारा कुत्तों को भी
दूध, खाना,दवाई देने का काम भी वही किया करता
वैसे तो वो हमेशा हँसता हुआ, शांत रहता था
लड़ाई-झगडे की नौबत कभी आने ही नहीं देता था पर
एक बार एक लड़ाई हो ही गयी तो उसने
एक थप्पड़ क्या मारा के सामने वाला व्यक्ति २ कदम दूर जाकर गिरा था :)
तो ऐसा मल्टीटैलेंटेड ,हरफन मौला था हमारा राम

वैसे राम पीछे से श्रीनगर से था
वो वहीं श्रीनगर में करीब 1960 में पैदा हुआ था
और अपने जीवन के शुरुआती पच्चीस साल भी उसने वहीं गुज़ारे थे
उसका परिवार दिल्ली और श्रीनगर दोनों ही शहरों में किराने के सामान के बड़े डिस्ट्रीब्यूटर में था
आर्मी कैंटीन में भी वो मेन सप्लायर थे
इसलिए राम का अपने युवा दिनों में आर्मी कन्टोन्मेंट एरिया में भी बेरोकटोक आनाजाना था
इस दौर में श्रीनगर में कोई हिन्दू-मुस्लिम टेंशन था नहीं
तो राम  के अनेकोनेक मुस्लिम दोस्त भी थे
तो उस समय के कश्मीर की हिन्दू-मुस्लिम-सिख
तीनों धर्मों की की मिली-जुली तहजीब को पूरा लुत्फ़ राम ने लिया
सोमवार से शनिवार तक अपनी दूकान पर जमकर काम करना
और संडे को जीन्स की पैंट-जैकेट में अपनी बुलेट पे सवार होकर
सुबह राधास्वामी सत्संग और दोपहर निरंकारी संत्संग में शिरकत करना
उसके बाद शाम होते ही लोकल बार में बैठकर बियर पीना
ये उसका हर सन्डे का फिक्स रूटीन था
वैसे उसका ये हर हफ्ते सत्संग में जाना राम के घरवालों को अखरता था
अब राम किसी को क्या बताता की उसे सत्संगों में रूहानी ज्ञान तो मिलता ही था साथ में
श्रीनगर की सबसे खूबसूरत कन्यायों के दर्शनों और संग का लाभ भी :)

उस समय ये जीन्स की जैकेट-पैंट भारत में कहाँ मिलती थी
तो वो अपने ये मनपसंद कपडे कश्मीर घूमने आने वाले हिप्पी टूरिस्ट्स से खरीद लेता था
बुलेट चलाने का बड़ा शौक़ीन था राम
श्रीनगर-लद्दाख का खतरनाक रास्ता कई बार नाप चुका था
उसकी ज़िंदगी बिंदास चल रही थी
की अचानक राम के सयुक्त परिवार में बॅटवारा हो गया
बॅटवारे में जाने क्या हुआ
पर राम के पापा के हिस्से में जो आया
वो एक आरामदायक जीवनशैली के लिए नाकाफी था
पच्चीस साल के नवयुवक राम को परिवार समेत श्रीनगर छोड़ दिल्ली आना पड़ा
और एक नए वातावरण में दोबारा से कड़ी मेहनत से शुरुआत करनी पडी
सदर की छोटी सी दुकान से चीन निर्मित माल के इम्पोर्ट तक
लंबा सफर था
कड़ी मेहनत थी
कुछ वर्षों के बाद उसे एक पार्टनर हरीश  का साथ मिल गया था
हरीश सारे एकाउंट्स देखता था और राम सारे काम की भाग-दौड़
राम का काम था चीन के गांव-गांव में घूम-घूम कर
कम से कम कीमत पर नयी-नयी तरह का वो सामान आयात करना,
जो उसकी सदर बाजार की दूकान पर तुरंत अच्छे मुनाफे पे बिक सके
हरीश का काम था सारे पैसे और लेन-देन को संभालना
बच्चे सा साफ़,पारदर्शी दिल था राम का
राम और हरीश की पार्टनरशिप को बीस साल हो चुके थे
राम ने ना कभी हरीश से हिसाब माँगा
ना कभी हरीश ने दिया

जब राम की बेटी की शादी तय हुयी
तो राम ने हरीश को कहा-
" हरीश जी ,एक बार हिसाब मिला लेते है
मुझे बेटी की शादी के लिए 3 महीने बाद कोई पचास लाख रुपयों की आवश्यकता होगी
हिसाब हो जाएगा तो इंतज़ाम करने में आसानी रहेगी "
इधर हरीश ने कहा- "राम भाई व्यापार में तो इतना पैसा है ही नहीं "
राम चौंक गया
सारी माल की खरीद वो करता था
सारी बेच भी वो खुद करता था
तो उसे मालूम था की माल किस रेट पे खरीद के किस रेट पे बेचा जा रहा है
तो कितना मुनाफ़ा हुआ
हाँ ,पेमेंट सारी हरीश के पास ही आती थी
और सारा लेन-देन और सारे बैंक एकाउंट्स भी हरीश ही चलाता था
राम के पाँवों के नीचे से जमीन निकल गयी
इन पिछले 20 वर्षों में उसने केवल घर खर्च के पैसे ही बिज़नेस से लिए थे
और कोई बड़ा खर्चा जीवन में आया नहीं तो
उसने बिज़नेस से फ़ालतू पैसा लिया भी नहीं
हाँ उसने हरीश से कभी हिसाब नहीं माँगा था
और यही उसके जीवन की सबसे बड़ी भूल हो गयी थी
उसकी बेटी की शादी आगे तीन महीने में थी
और  .....

अगले कई हफ़्तों तक मीटिंगों का दौर चलता रहा
राम ने हरीश को खूब समझाया
जब बात नहीं बनी तो फिर कुछ कॉमन दोस्तों को भी मीटिंग में बिठाया गया
पर जिसने बेईमानी करनी होती है वो उसकी तैयारी भी साथ-साथ करता रहता है
हरीश ने यही किया था
वो वर्षों से ही एकाउंट्स में हेरा-फेरी करता रहा था
और उसने बिज़नेस का सांझा पैसा निकाल कर बाहर इन्वेस्ट कर दिया था
कोई भी दवाब ज्यादा काम नहीं आया
हरीश बस तीस लाख रूपये देने को तैयार हुआ था
जबकि राम के अनुमान से वो कम से कम दस करोड़ रूपये की रकम थी
उलटा सब लोगों ने राम की ही गलती बताई थी
की क्यों उसने बीस साल तक ना हिसाब देखा और ना ही अपना हिस्सा निकाला
राम को आज अपने स्वर्गीय पिता की सीख बार-बार याद आ रही थी-
" बेटा, हिसाब तो बाप-बेटे का भी समय से होना चाहिए "
पर अब चिड़िया खेत चुग कर उड़ चुकी थी

राम की बेटी की शादी तो ठीक से हो गयी
पर वो उदास रहने लगा था
जब कोई अनजान धोखा देता है ना ,तो गुस्सा आता है
पर जब कोई अपना नज़दीकी,
अपना दोस्त धोखा देता है तो ...
इंसानियत से... दोस्ती से
और तो और अपने खुद के ऊपर से भी विश्वास उठ जाता है
आदमी टूट जाता है

राम की उदासी मनु ने महसूस तो की थी
पर ज्यादा तवज्जो नहीं दी थी
पर एक दिन सुबह जब उसने राम को बढ़ी हुयी दाढ़ी
और उतरे चेहरे के साथ काम के लिए निकलते देखा
तो उसे लगा कुछ तो बड़ी परेशानी है
वरना राम तो कभी ऐसा बिखरा हुआ नहीं था
इतने सालों में कभी भी मनु ने राम को ऐसे नहीं देखा था
वो तो हमेशा वैल मंटेन्टेड ,स्टाइलिश रहने वाला इंसान था
शाम को मनु ,राम के घर पहुंचा
पहले तो राम हिचका
पर फिर सारी बात विस्तार से मनु को बतायी
मनु भी बहुत दुखी हुआ
इन दिनों मनु खुद भी ऐसी ही एक कैफियत से गुज़र रहा था
जितना मनु सांत्वना दे सकता था,उसने दिया
और अपने घर वापिस आ गया

इस घटना के 4 -5 दिन बाद एक सुबह
मनु अपने मकान की पहली मंज़िल पर खड़ा था
उसमे नीचे देखा राम आज फिर काम के लिए निकल रहा है
अपने उसी पुराने सलमान खान अवतार में
वही बेहतरीन कपडे, उम्दा सनग्लास,
चमकते हुए पॉलिशड जूते, गले में स्कार्फ़,
चिकनी शेव पर साउथ इंडियन हीरो स्टाइल भारी मूंछे
मनु ने ऊपर से ही आवाज़ लगाईं-
"राम भाई आज तो आप फिर से सलमान खान लग रहे हो "
राम बोला - " औ मनु जी क्या कहते हो
हम तो मज़दूर आदमी हैं
कहाँ ज्यादा दिन सोग मना सकते हैं
चलें हैं फिर से मज़दूरी करने
बाकी वो ऊपर वाला ..... अल्लाह हाफ़िज़ "
राम ने दोनों हाथो और सर को ऊपर उठाते हुए कहा था
(इतने साल कश्मीर में रहने से राम अक्सर अल्लाह हाफिज़ ही कहा करता था  :) )
मनु ने देखा
राम  पहले की ही तरह हँसते मुस्कुराते हुए
अपनी इन्नोवा खुद ड्राइव करते हुए काम पर निकल गया

" वो सचमुच का हीरो था , अपनों से धोखा खाया , सबक लिया ,
   रुका नहीं , उठा और फिर से निकल पड़ा अपनी मंज़िल की ओर  
   नए उत्साह और उमंग के साथ 

   हमारी कॉलोनी का , हमारा अपना सलमान खान "

कुछ अच्छे शेर

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए थे लेकिन, 
बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले.
-ग़ालिब 

"ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है ?
वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है।
- मिर्ज़ा रज़ा बर्क़

"भाँप ही लेंगे इशारा सर-ए-महफ़िल जो किया,
ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं।"
- माधव राम जौहर

"चल साथ कि हसरत दिल-ए-मरहूम से निकले,
आशिक़ का जनाज़ा है, ज़रा धूम से निकले।"
- मिर्ज़ा मोहम्मद अली फ़िदवी

"दिल के फफोले जल उठे सीने के दाग़ से,
इस घर को आग लग गई, घर के चराग़ से।"
- महताब राय ताबां

"ईद का दिन है, गले आज तो मिल ले ज़ालिम,
रस्म-ए-दुनिया भी है,मौक़ा भी है, दस्तूर भी है।"
- क़मर बदायूंनी

"क़ैस जंगल में अकेला ही मुझे जाने दो,
ख़ूब गुज़रेगी, जो मिल बैठेंगे दीवाने दो।"
- मियाँ दाद ख़ां सय्याह

'मीर' अमदन भी कोई मरता है?
जान है तो जहान है प्यारे।"
- मीर तक़ी मीर

"शब को मय ख़ूब पी, सुबह को तौबा कर ली,
रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई।"
- जलील मानिकपुरी

"शहर में अपने ये लैला ने मुनादी कर दी,
कोई पत्थर से न मारे मेंरे दीवाने को।"
- शैख़ तुराब अली क़लंदर

"ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने,
लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।"
- मुज़फ़्फ़र रज़्मी

तुमने कहा था


तुमने कहा था एक दिन
"मैं भी तुम्हे चाहती हूँ"
ज़माने गुज़र गए ,
उस एक झूठ की नमी सोखे मैं 

आज तक मुतमईन (हरा-भरा )
जिए जा रहा हूँ।

------------------------

मुतमइनمطمئن
(quiet, secure, tranquil, satisfied)

Wednesday, May 27, 2020

पेड़ ना बन सका


पेड़ (शजर ) ना बन सका
तो मैं घास बना
कुचला गया तो
बारिश तक इंतज़ार किया
और.. फिर से तना।

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चना था मैं
बादाम ना था
जिसने खाया
उसका पेट भरा
पहलवान नहीं
वो ...इंसान बना।







मेरा जूता

मेरा जूता जगह-जगह से फट गया है धरती चुभ रही है मैं रुक गया हूँ जूते से पूछता हूँ⁠— 'आगे क्यूँ नहीं चलते?' जूता पलटकर जवाब देता है⁠— 'मैं अब भी तैयार हूँ यदि तुम चलो!' मैं चुप रह जाता हूँ कैसे कहूँ कि मैं भी जगह-जगह से फट गया हूँ।" —सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

Tuesday, May 26, 2020

दो-दो मनोज

बात 1976 की है
पवन एक बहुत ही प्यारा
ढाई साल का
नन्हा-मुन्ना
सांवला सलोना सा
खुशदिल बच्चा था
वैसे तो उसका घर दिल्ली में था
पर आज वो माँ सावी और पापा रज्जन के साथ उनके गांव आया हुआ था
उसने देखा ,आज गांव वाले घर में बहुत चहल-पहल है
सब बहुत खुश लग रहे थे
एक दूसरे को बधाई दे रहे हैं
गले मिल रहें हैं
आँगन के एक ओर हलवाई ,
पवन के मनपसंद गुलाब-जामुन बना रहे थे



पंडित जी भी आये हुए थे
वो आँगन के बीच में बैठे कुछ सामान संभाल रहे थे
फूलमाला, लकड़ियाँ ,और भी पता नहीं क्या-क्या सामान था
फिर सब लोग भी पंडित जी के पास आ गए
पापा, मम्मी, अम्माँ ,बाबा चाचा ,चाची और भी बहुत सारे लोग

वो सब लोग आकर पंडित जी के आसपास बैठ गए
पवन ने देखा, चाचा-चाची पंडित जी के बिलकुल सामने बैठे है
और चाची की गोदी में रखे तौलिये में एक छोटा सा बच्चा है
पवन ,चाची से बोला-
 " चाची ये कौन है  "
( पवन ने उंगली से चाची की गोदी की ओर इशारा करते हुए पूछा  )
ये सुनकर चाची हँसी और बोली -
"पवन ये तेरा छोटा भाई है "
अब तो पवन चाची के बिलकुल पास आकर बैठ गया
पवन ने जैसे ही उस छोटे से बच्चे की हथेली को अपनी उंगली से छुआ
उस बच्चे ने पवन की उंगली अपनी मुठ्ठी में कस के पकड़ ली
पवन बहुत खुश हो गया
पवन ने देखा वो एक छोटा सा सुन्दर हाथ था
जिसपर एक काला धागा बंधा हुआ था
अभी पवन इसी धुन में खोया हुआ था की
पंडित जी ने मंत्रोचारण शुरू कर दिया
हवनकुंड में एक-एक कर सारी लकड़ियाँ और सारी सामग्री डाली
पवित्र अग्नि प्रजव्लित हो रही थी


उसके बाद पंडित जी ऐलान  किया-
"जजमान सिंह राशि है , बच्चे नाम "म " से होगा "
पवन के चाचा केशव तुरंत बोल पड़े -
"फिर तो मनोज कुमार रख देते है "
साथ बैठे सभी लोग हँसे
केशव चाचा के दोस्त सुधीर बोले-
"केशो मुझे पता है तू मनोज कुमार के पीछे कितना पागल है
 भाभी आपको पता है
ये "उपकार" और "शोर" फिलम कितनी बार दिल्ली देख आया है  ? "
केशव चाचा हॅंस कर बोले -

"अबे नाम रखने से 
अगर मेरा बेटा मनोज कुमार की तरह बड़ा फ़िल्मी सितारा बन जाए तो 
  अच्छा ही है ना  "

( 60s और 70s में मनोज कुमार टॉप के हीरो थे और केशव चाचा के फेवरेट :) 
पूर्व और पश्चिम, उपकार, रोटी कपड़ा और मकान , शोर जैसे अनगिनत बेहतरीन फ़िल्में उन्होंने की हैं 
उनकी इन्हीं देशभक्ति की फिल्मों की वजह से 
उन्हें आज भी "भारत कुमार" कहते हैं :)  )

पवन ऊपर मुंडी करके इन सब की बातें सुनने-समझने की कोशिश कर रहा था
पवन साथ बैठी माँ (सावी) से बोला -
"माँ ये मनोज  कुमार कौन है "
सावी- "बेटा मनोज कुमार  एक बहुत बड़ा फ़िल्मी हीरो  है "
पवन- "और पवन  "
सावी- "पवन तुम्हारा नाम है बेटा "
पवन-"नहीं , मैं पूछ रहा हूँ और पवन कौन है "

( सावी अब तक पवन की इन बे-सरपैर की बातों सी खीज चुकी थी
तो  पीछा छुड़ाने लिए बोल दिया  )

" नहीं पवन नाम का कोई कुछ नहीं है ...बस खुश ..अब बस तू चुप हो जा "

उस सारी रात नन्हा पवन सोया नहीं
उसने सोचा उसका नाम पवन है
और पवन नाम का तो कोई कुछ नहीं है

उसे लगा ये छोटा सा बच्चा तो मनोज कुमार नाम रखके एक दिन बड़ा आदमी बन जाएगा 
और वो ऐसे ही रह जाएगा

और सुबह उठते ही जो भी उसे मिला
उससे पवन ने बस इतना ही कहा -
"आज से मेरा नाम भी मनोज कुमार है
  पवन नाम से मैं बोलूँगा ही नहीं "

सब खूब हँसे :)
खूब समझाया
पर पवन टस से मस ना हुआ
अब तो कोई भी उससे उसका नाम पूछता तो वो  मनोज कुमार ही बताता :)
स्कूल के दाखिले के समय टीचर के पूछने पर उसने अपना नाम मनोज कुमार ही बताया :)
तो स्कूल में भी उसका नाम मनोज ही लिखा गया
आखिरकार रज्जन और सावी ने भी समझौता कर लिया
उसे मनोज ही कहना शुरू कर दिया

उधर गांव में केशव चाचा के बच्चे को भी उसका नाम मनोज ही बताया जा रहा था
बीच में उसका नाम कुछ और रखने की कोशिश भी हुयी
पर अन्तः उसका नाम भी मनोज ही पक गया

तो अब एक ही परिवार में "दो-दो मनोज" हो गए थे :)

फ़र्क़ बस इतना ही हुआ की
जब-जब बातचीत में दोनों की बात एक साथ होती तो
पहचान के लिए रज्जन के बेटे को "दिल्ली वाला मनोज "
और केशव के बेटे को "गांव वाला मनोज"
कहा जाता है :)

आज 44 साल बाद भी ऐसा ही चल रहा है :)
तो सब इस बात पे खूब हँसते है
सब दिल्ली वाले मनोज से पूछते भी हैं की उसने ये अपना नाम पवन से मनोज क्यों किया
पर दिल्ली वाला मनोज किसी को क्या बताये की

उस वक़्त उसके मन में छोटे भाई के लिए कैसी इर्षा जाग गयी थी
उसके बालक मन ने सोचा की 
जो भी सबसे बेहतर चीज़ हो 
वो बस मुझे ही मिले,
किसी और को नहीं
मेरे अपने छोटे भाई को भी नहीं :(

#मन7 

#बचपन #bachpan manojgupta0707.blogspot.com

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प्रवासी,भाग-13

घर-परिवार के ,आसपास के
सभी लोग हैरान थे
ये रज्जन जी का अचानक यूँ चले जाना ....कैसे ?
ना वो बीमार थे
ना कभी कोई दवाइयाँ खाने की उनको कभी जरुरत पडी
अरे वो तो ऐसे व्यक्ति थे जो बुखार होने पर भी ये कहते थे की -

"ये बुखार वायरल होता है 3 -4 दिन तो रहेगा ही
दवाई खाओ या ना खाओ  3 -4 दिन दिन में खुद ठीक हो जाएगा "

और वो हमेशा  3 -4 दिन बाद ठीक हो भी जाते थे

फिर अचानक ऐसा क्या हुआ ?
फिर सावी ने पूरे घर को बताया की
वो क्या दुःख था जो रज्जन जी को अंदर ही अंदर खा रहा था

ये पिछले साल 2006 की बात थी
अपने सामजिक कार्यो के दौरान रज्जन जी एक सामजिक संस्था से जुड़े जो
"मुफ्त आँखों का कैंप" लगवाने में सहायता करती थी।
उन्होंने सोचा के उनके गांव जहांगीरपुर को तो इस कैंप की बहुत जरुरत है
तो क्यों ना ये कैंप अपने गांव जहांगीरपुर में लगाया जाए

 (गांव-देहात में जहाँ लोग जीवन की साधारण जरुरतों को ही ठीक से पूरा नहीं कर पाते , तो आँखों का चेकअप कैसे करा पाएंगे ,इन कैम्पों में गरीब लोगो की आखों का मुफ्त चेकअप किया जाता है और जिसको दवाई या चश्मे की जरुरत होती है उनको वो मुफ्त वितरित किये जाते है , जिसको किसी भी तरह के ओप्रशन की जरुरत होती है ,उन्हें गांव से बस से दिल्ली लाना ,उनका दिल्ली के किसी बड़े हस्पताल में मुफ्त ओप्रशन करवाना और फिर गांव तक छुड़वाना होता है, ये सारा कुछ मरीज़ के लिए मुफ्त होता है  )

बहुत सालों से एक और बात रज्जन जी के मन में चल रही थी
अपने लाला (पिता) का एक सम्मान समारोह आयोजित करने की
तो रज्जन जी ने सितम्बर 2006 में एक भव्य सम्मान समारोह अपने गांव जहांगीरपुर में आयोजित किया

 "लाला परमेश्वरी दयाल सम्मान समारोह "

इस समारोह में आस-पास के सभी गावो से
80 वर्ष या अधिक आयु के 100 बुजुर्गों को ससम्मान आमंत्रित किया गया
लालाजी समेत सभी 100 बुजुर्गों को मंच पर बुलाकर फूलों के हार पहनाये गए
और एक सम्मान चिन्ह, कपडे और कुछ नकद रूपये देकर उन्हें सम्मानित किया गया

(निश्चित ही वो दिन उन सभी बुजुर्गों के लिए एक यादगार सम्मान का पल लाया होगा
क्युकी सोच के देखिये क्या हम अपने बुजुर्गों को आम जीवन में
अपना उतना समय ,प्यार और सम्मान दे पाते हैं ,जिसके वो हक़दार हैं )

इस समारोह में क्षेत्र के मेंबर पार्लियामेंट ,मिनिस्टर,विधायक, DC , DCP  समेत आसपास के गावों के करीब 20000 गांव वालों ने शिरकत की
विभिन्न तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए
कई तरह का खाना-पीना इत्यादि
 "मुफ्त आँखों का कैंप" भी लगाया गया
जिसमे करीब 2000 ग्रामीण लोगों का मुफ्त चेकअप हुआ
लगभग हर व्यक्ति को ही कोई ना कोई छोटी-बड़ी समस्या पाई गयी
तो जिनको दवाई चाहिए थी ,दवाई,
जिनको चश्मे की जरुरत थी उन्हें चश्मे मुफ्त मिले
और करीब 700 आँखों के ओप्रशन के केस चिन्हित किये गए
(ये सब ओप्रशन अगले 2 महीने में सफलतापूर्वक हो गए  )

ये समारोह जहांगीरपुर गांव के इतिहास का सबसे भव्यतम समारोह था

अब प्र्शन ये उठता है की रज्जन जी ने आखिर ये सब तामझाम क्यों किया ?
परोपकार के लिए ?
मैं ये नहीं मानता
मुझे लगता इसके पीछे भी बाल रज्जन की वही कसम थी 

"मेरे लाला जमींदार थे और मुझे अपने लाला को फिर जमींदार बनाना है "

इस भव्यतम समारोह के द्वारा रज्जन ने केवल अपने गांव ही नहीं आसपास के सभी गावों में ,
पूरे प्रशासन मेँ ये सन्देश साफ़ कर दिया था की
इस क्षेत्र में बस एक ही जमींदार है
और वो हैं मेरे लाला  "लाला परमेश्वरि दयाल "
2006 में इस सम्मान समारोह के दिन लालाजी की उम्र 96 वर्ष थी
पूरे 6 फ़ीट लम्बे लालाजी पूर्णतः स्वस्थ थे
बीपी,शुगर,दिल की किसी बीमारी से कोसों दूर
रोज़ सुबह पैदल अपने खेत तक जाना और वापिसी में
कोई साग ,सब्जी ,गन्ने , खेत से काट के लेते आना
उनका रोज का नित्य कर्म था
(ये आना-जाना रोज करीब 10 किलोमीटर पड़ता था :) )
और फिर पूरा दिन अपनी गांव की कपडे की दूकान पर बैठकर
अखवार और सामजिक और राजनैतिक पत्रिकाएँ पढ़ना
और दूकान पे आने वाले ग्राहकों को राजनीती की,
देश-दुनिया के अद्बुध स्थानों और घटनाओ के बारे में बताना
लालाजी कभी विदेश नहीं गए थे
पर विश्व की ऐसी कोई भी जगह नहीं थी जिसका पूरा इतिहास लालाजी न जानते हों
पोते-पोती या कोई भी जब कहता की लालाजी इन छुट्टियों में हम फलाने देश घूमने जा रहे हैं
तो लालाजी पूरी डिटेल बता देते की कौन-कौन जी जगह उन्हें जरूर देखनी चाहिए :)  )

इस भव्यतम समारोह के ठीक 13 दिन बाद अचानक एक सुबह
लालाजी को पता नहीं क्या भान हुआ
वो छोटे बेटे केशव से बोले-

 "केशो अब मैं पूरा हो रहा हूँ ,
   मोए बस रज्जन से मिलनो है ,
   मोऐ रज्जन माई दिल्ली ले चल "

केशव ने लालाजी को गाड़ी में बिठाया
गाड़ी गांव से दिल्ली के सेंट स्टेफेन हॉस्पिटल की और दौड़ पडी
रास्ते से केशव ने भैय्या रज्जन को फोन किया
इधर रज्जन अपने दिल्ली के घर से हॉस्पिटल भागा
हॉस्पिटल में लालाजी ने रज्जन का हाथ अपने हाथ में लेकर बस इतना ही कहा

"बड़ा जिद्दी है रे तू रज्जन 
आखिकार तूने मोए फिर जमींदार बना ही दियो "

(अब रज्जन ने जाना
केवल बड़ी जमीन खरीद होने भर से ही कोई जमींदार नहीं बन जाता
ये तो आम लोगों के मन में जब किसी व्यक्ति के प्रति अगाध आदर और सम्मान जागता है
तो वो व्यक्ति सही मायनो में "जमींदार" बनता है
और अब जाकर लाला जी ने वो भाव
आसपास गावों से आये हज़ारों लोगों की आखों में अपने लिए महसूस कर लिया था )

और बेटे रज्जन की गोद में एक अबोध बालक की तरह सर रखकर
लालाजी हमेशा के लिए सो गए

रज्जन के अलावा ना तो कभी किसी को ये घटना समझ आयी
और ना ही रज्जन और उसके लाला का आपसी अगाध  प्रेम

लालाजी की अंतिम यात्रा में उनके दर्शन के लिए आसपास गावों के हज़ारों लोग शामिल हुए
उनके दाह-संस्कार के अगले दिन जब रज्जन और बाकी परिवार के लोग
लालाजी फूल (अस्थियां) चुनने पहुंचे
तो उन्हें कुछ 2 -4 ही फूल मिले
शमशान के पंडित जी ने बताया की
कल से ही आसपास के गावों के सैकड़ों लोग आते गए
और लालाजी का एक फूल अपने पूजाघर के लिए लेते गए

( हमारे क्षेत्र में ये विश्वास है की अगर कोई जन किसी महान व्यक्ति का फूल (अस्थिया)
अपने पूजाघर में रखता है तो उस घर में सुख और समृद्धि का वास होता है )

आज जाने कितने घरों के पूजाघरों में वो "जमींदार" अपनी सल्तनत बना चुका है

लालाजी के जाने के बाद रज्जन जी चुप-चुप रहने लगे थे
लालाजी के जाने से वो टूट गए थे
या फिर हो सकता है "लक्ष्य" पूरा हो गया था तो 
रज्जन जी खुद को निरर्थक समझने लगे हो 
घर में सब लोग अपने-अपने जीवन में मस्त थे
किसी को कोई भान नहीं था ,रज्जन जी की मनस्तिथी का
बस सावी को अनुमान था की
रज्जन जी किस दुःख से गुजर रहे है
और लालाजी के जाने के 6 महीने बाद 2007 में
65 साल की उम्र में ,
वो प्रवासी
रज्जन भी ....

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Monday, May 25, 2020

प्रवासी,भाग-12

रज्जन जी ने अपने पूरे जीवन के दौरान परोपकार-फूलों के जो अनगिनत पौधे लगाए थे
वो सब छोटे पौधे अब बड़े पेड़ बन चुके थे 
सब आज फुटवियर बिज़नेस में बड़े और अच्छे नाम थे 
मनु को उन सब का भरपूर सहयोग मिला 
मनु फुटवियर बिज़नेस में जिस किसी से भी कभी भी मिला 
सबने हमेशा रज्जन जी की भूरी-भूरी प्रसंशा ही की थी 
करीब एक साल बाद मनु का छोटा भाई मुकेश भी फैक्ट्री आ गया 
अब काम और भी अच्छा हो रहा था 
रज्जन जी ने जब देखा की ये दोनों बच्चे अब नहीं मानेंगे और फुटवियर बिज़नेस ही करेंगे 
तो उन्होंने भी अपनी जिद छोड़ दी 
उन्होंने तुलसी नगर इन्देर्लोक में एक फैक्ट्री शेड खरीदा 
और फैक्ट्री वहां शिफ्ट करा दी 
और वो खुद भी कभी-कभी फैक्ट्री आने लगे और अपनी राय देने लगे 

वो अक्सर ,हर महीने कम से कम 7 -8 दिन अपने गांव में ही बिताते 
गांव में भी उनका ज्यादातर समय अपने खेतों पे किसानों के बीच बीतता था
जब वो वापस दिल्ली आते तो लगभग हर बार ही उन्हें सनबर्न हुआ होता था 
क्युकी वो भरी गर्मी में भी अपने खेतों पर ही होते थे
मनु हमेशा गुस्सा करता-

"आप क्यों जाते हो गांव ?
  क्या है गांव में " ?
वो हॅंस देते , कहते-
"अब तुझे कैसे समझाऊ ,
  मेरा तो सब कुछ वहीँ है "

असल में उनका व्याकुल मन तो अपने गांव में ही रहता था 
मौक़ा मिलते ही वो गाड़ी स्टार्ट करते 
खुद गाड़ी चलाकर अपने गांव पहुंच जाते
वो कई-कई दिन वही रहते 

रज्जन जी के बेटे मनु की शादी हो गयी 
1997 में मनु के बेटे हेमू के जन्म पे वो हॉस्पिटल में ही थे 
खबर सुनते ही रज्जन जी वही हस्पताल के कंपाउंड में ही नाचने लगे थे :)
लोग देख कर हँस रहे थे की ये 55 साल का आदमी हस्पताल में नाच रहा है 
कहा था ना, एक बचपना था उनके अंदर 
जो उन्होंने कभी खोने नहीं दिया 
जीवन में सुख-दुःख 
उतार-चढ़ाव आते रहे 
वो हँसते रहे 
बेटी ममता की शादी हुयी 
बेटे मुकेश की शादी हुयी 
सब अच्छा चल रहा था के एक दिन सुबह 
2007 की एक सुबह हमेशा की तरह 
रज्जन जी और नरेंद्र जी पंजाबी बाग़ क्लब स्विमिंग के लिए गए 
2 घंटे बाद रज्जन जी के घर एक फोन आया के 
रज्जन जी को स्विमिंग करते-करते हार्ट अटैक आया था 
अब वो अग्रसेन हॉस्पिटल में हैं
मनु हस्पताल पंहुचा 
उसने देखा 
रज्जन जी के शरीर में कोई हरकत नहीं थी

"प्रवासी" जा चुका था
अपने गांव नहीं 
अपने अंतिम सफर पे 
अकेले... 
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(   निखत इफ्तिखार साहिबा का एक शेर है

      " शौक को आज़मे सफर रखिये 
        बेखबर बनके सब खबर रखिये  
        जाने किस वक़्त कूच करना हो 
        अपना सामान मुक्तसर (तैयार) रखिये  "   )
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प्रवासी,भाग-11

अब रज्जन जी का जीवन एक शांत झील जैसा हो गया था
उसका 1987 से 1994 तक कोई डेली
काम पे जाने वाला एक्टिव बिज़नेस नहीं था
तो वो कभी थोड़ा सा शेयर्स में इन्वेस्टमेंट
कभी किसी प्लॉट में
कभी किसी भी और तरह का इन्वेस्टमेंट
तो रज्जन जी कई तरह के कामों में अपना पैसा और समय लगा रहे थे
करीब 7 साल ऐसा ही ,कभी सीधा कभी टेढ़ा चला
जब तक 1994 में उसके बड़े बेटे मनु ने कॉलेज ख़त्म नहीं कर लिया
रज्जन जी चाहते थे की मनु आगे पढ़ाई करके पीएचडी करले और
किसी कॉलेज में प्रोफेसर बन जाए
जबकि मनु के मन पर तो पैसा कमाने का भूत सवार था
मनु बिज़नेस करना चाहता था
रज्जन जी ने बेटे मनु को बहुत समझाने की कोशिश की ,वो अक्सर कहते  -
"बेटा बिज़नेस लाइफ में बिलकुल सुकून नहीं है ,
तू इंटेलीजेंट है ,पीएचडी करके कहीं प्रोफेसर हो जा
पैसे की फिक्र ना कर ,हमारे पास है
कॉलेज के पहले ही दिन तू लम्बी गाड़ी लेकर कॉलेज बच्चों को पढ़ाने जाएगा
मज़े की लाइफ जियेगा ,
सुबह 10 बजे जा, शाम को 5 बजे वापिस
फिर कोई चिंता नहीं, अपने लिए टाइम ही टाइम "

पर रज्जन जी की कोई भी बात मनु के पल्ले नहीं पड़ रही थी
उसके मनपर बस एक ही धुन सवार थी -
बिज़नेस -पैसा , बिज़नेस- पैसा ,
रज्जन जी के दोस्त नरेंद्र पेपर ट्रडिंग बिज़नेस में थे
और सावी के कजन भाई भी एक नामी पेपर मिल मालिक थे
तो रज्जन जी ने मनु को पेपर ट्रेडिंग का काम शुरू करवा दिया
मनु पेपर ट्रेडिंग का काम कर तो रहा था पर
कहीं ना कहीं मनु का मन फुटवियर बिज़नेस में ही था
क्युकी सारे रिश्तेदार तो फुटवियर मैन्युफैक्चरिंग में ही थे
तो जब भी कोई सोशल मीट होती तो बातें बस फुटवियर की ही होती
इधर पेपर बिज़नेस में भी कुछ ख़ास नहीं हो पा रहा था तो
मनु जिद करने लगा की वो तो फुटवियर फैक्ट्री ही लगाना चाहता है
पर रज्जन जी ....वो मनु के इस फैसले के सख्त खिलाफ था

असल में ,
रज्जन जी के मन में फुटवियर बिज़नेस को लेकर कई भावनायें प्रवाहित हो रहीं थी
एक तो 10 साल पहले 1987 में रज्जन जी बड़ी ठसक से ये कहकर फुटवियर लाइन छोड़कर आये थे की -
"फुटवियर लाइन अच्छी लाइन नहीं है ,
  इसमें बहुत एयर पोलुशन है और दिन का चैन और रात की नींद नहीं है
इसलिए मैं ये लाइन छोड़ रहा हूँ "
दूसरे ,जब उन्होंने 1987 में लाइन छोड़ी थी तब वो सबसे बड़े कुछ फैक्ट्री वालों में शुमार थे
आज 10 सालों के बाद 1997 में एक बहुत बड़ी फैक्ट्री लगाने के लिए जो पूंजी चाहिए थी,
वो शायद उनके पास आज नहीं थी
और अगर आज उनका बेटा मनु किसी छोटे लेवल से काम शुरू करता है तो इसमें,
रज्जन जी की जगहसाई थी
की देखो बंगाल फुटवियर वालों के बेटे मनु ने कितनी छोटी सी फैक्ट्री लगाईं है :)

बाप बेटे में खूब तकरार हुयी
पर मनु फिर भी नहीं माना
और आख़िरकार बंगाल फुटवियर वालों के बेटे मनु ने
40 गज की छोटी सी
किराये की बेसमेंट में
केवल 2 वर्टीकल मशीनो के साथ
फुटवियर फैक्ट्री शुरू कर ही दी

रज्जन जी फैक्ट्री के मुहूर्त पर भी नहीं गए।

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प्रवासी,भाग-10

पीतमपुरा का मौहोल त्रिनगर से बिलकुल ही अलग था
रज्जन को यहाँ आकर काफी सुकून मिला था 
घर बहुत अच्छा था ,
घर के ठीक़ सामने एक बड़ा सा पार्क था 
आसपास और भी काफी पार्क थे 
पोलुशन नाम की यहाँ कोई चीज़ ही नहीं थी 
हर तरफ चौड़ी-चौड़ी सड़कें ,
और सब कुछ साफ़-सुथरा,व्यवस्तिथ  
इस कॉलोनी में ज्यादातर पढ़े -लिखे नौकरी पेशा लोग रहते थे 
उसका लोगों से अच्छा व्यवहार बन गया 
नरेंद्र जी तो थे ही 
उनके अलावा भी काफी लोग थे जो रज्जन को अच्छे लगते थे 
रज्जन और सावी कॉलोनी की मंदिर संस्था के आजीवन सदस्य बने 
रज्जन ने नरेंदर जी के साथ मिलकर अग्रवाल समाज ,पीतमपुरा शुरू किया

वैसे तो रज्जन अग्रवाल समाज से त्रिनगर में 1973 से ही जुड़ गया था 
पर बाद में वहां की हरयाणा-उत्तरप्रदेश राजनीति का वो शिकार हो गया था
उसका मन खट्टा हो गया था और उसने कसम खाई थी की 
वो उस "अग्रसेन भवन" ,त्रिनगर में कभी पाँव नहीं रखेगा 
जिस भवन का प्लॉट उसने खुद ने ही अपने जीतोड़ प्रयास के बाद 
डीडीए से अग्रवाल समाज, त्रिनगर को दिलवाया था  )

असल में त्रिनगर में कभी 70 के दशक में हज़ारों प्रवासी ज्यादातर हरयाणा और उत्तरप्रदेश से आये थे
उसमे भी हरयाणा से आने वाले करीब 90 % ,
उत्तरप्रदेश से करीब 5 % और बाकी 5 %अन्य प्रदेशो से मिलाकर रहे होंगे
इन सब प्रवासियों में बहुमत अग्रवाल लोगों का था
शुरू के वर्षों में तो सब अपनी आजीविका कमाने में व्यस्त रहे 
पर जैसे ही इन सभी प्रवासियों के पास पैसे का आना बढ़ा 
पैसे के आने के साथ-साथ इन सबकी राजनैतिक महत्वकांक्षाये भी जागी
और सामजिक संस्थाओं के शीर्ष पदों पर कब्जे की खींचतान भी बढ़ी
(कुछ लोग तो यहाँ तक भी कहते है की त्रिनगर में लोग अपने बच्चो की शादी भी ये सोचकर किसी परिवार में करते हैं की ये सम्बन्ध जुड़ने से उन्हें चुनाव में कितने वोट ज्यादा मिल सकते हैं :) )
रज्जन के ,पार्षद श्री दीपचंद जी से पारिवारिक सम्बन्ध थे
वो रज्जन को बेटे सा प्यार देते थे
दीपचंद जी उस समय डीडीए के चेयरमैन बने और
रज्जन के लगातार प्रयास और दीपचंद जी से उसके पारिवारिक प्रेम के कारण
अग्रवाल समाज त्रिनगर और ब्राह्मण समाज त्रिनगर को बड़ी धर्मशाला बनाने के लिए
डीडीए का एक-एक बड़ा सा प्लॉट शंकर चौक,त्रिनगर में मिला.
(आज उन्ही प्लॉटों  पे शंकर चौक,त्रिनगर पे ,"श्री अग्रसेन भवन" और "भगवान परशुराम भवन" बने हुए है 
इन भवनों में कई लोगों के नाम के बड़े-बड़े पथ्थर लगे हुए हैं ,पर जिसने इन भवनों के प्लॉटों को दिलवाने  में अहम् भूमिका निभाई ,उस "राजेंद्र प्रसाद गुप्ता (बंगाल फुटवियर वाले)" का कहीं कोई जिक्र भी नहीं है :)  )

रज्जन को तब लगा था की उसने समाज के लिए एक बहुत बड़ा कार्य किया है
और समाज उसको इसका सम्मान देगा
उसका ये भ्रम तब टूटा जब अगले अग्रवाल समाज ,त्रिनगर चुनाव में उसने प्रधान पद के लिए अपना नाम भरा
और उसपर ये कहकर नाम वापिस लेने का दवाब बनाया गया की

" तू यू.पी. से है ,यहाँ तो कोई हरियाणा वाला ही प्रधान बनेगा "

रज्जन का मन टूट गया , उसने अपना नाम वापिस ले लिया
फिर कभी उसने अग्रवाल समाज,त्रिनगर में सक्रिय कार्य नहीं किया
और फिर 1992 में पीतमपुरा शिफ्ट होने के बाद तो ये दूरियां और गहरी हो गयी

अब यहाँ 1992 के बाद उसने पीतमपुरा को ही अपने सामजिक कार्यो की कार्यस्थली बना लिया
यहाँ भी लोगो के पास पैसा बहुत था
पर वो आपसी खींचतान नहीं थी जो त्रिनगर में थी

यहाँ लोगों के सिर पर पैसा, ताकत, क्षेत्रवाद का वो जूनून नहीं था :) 

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प्रवासी,भाग-9

सारी फुटवियर मार्किट में चर्चा गर्म थी
"बंगाल फुटवियर" बंद हो गयी
( ये 1987 की बात है )
लोग हैरान थे
रज्जन की कोई देनदारी तो थी नहीं क्युकी वो
हमेशा एडवांस पेमेंट या कैश में ही सारा रॉ मैटेरियल्स खरीदता था
सो फैक्ट्री वर्कर्स का हिसाब चुकता कर रज्जन अपने गांव आ गया
उसने छोटे भाई केशव और लाला को बताया की उसने फैक्ट्री बंद कर दी है
और अब वो गांव वापस आ रहा है
अब यहीं रहेगा

छोटा भाई केशव तो बड़े भाई का लिहाज़ कर चुप हो गया पर
लाला ने रज्जन को बहुत गालियां दी
लाला बोले-
"तू कम से कम मुझे बताता तो के तू क्या करने वाला है
तुझे क्या लगता है के तू यहाँ गांव में रह लेगा
तू तो शायद रह भी ले ,तो क्या तेरे बच्चे यहाँ रह पाएंगे "
"और ये जो तू गांव में आकर हमेशा अपनी कमाई के झूठे-सच्चे किस्से बढ़ा-चढ़ा के लोगो को सुनाता रहता है
जो भी कोई गांव से दिल्ली तेरे घर जाता है  ,वो जो माँगता है , तू दे देता है
गांव में तेरी इतनी हवा बनी हुयी है के पूरे क्षेत्र के बदमाशों की तुझपे नज़र है
तू गांव आकर रहेगा, अबे उठा ले जाएंगे तुझे 
हमारी जान और जोखिम में डालेगा तू  "

रज्जन तो जैसे सांतवे आसमान से सीधा धरती पे गिरा
ऐसा कुछ तो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था
उसका अपना गांव ....
क्या उसका अपना कमाया हुआ पैसा ही उसके लिए जहर बन गया था
(ये वो 1987 का दौर था जब उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में काफी क्राइम था )

भरे मन से रज्जन दिल्ली वापस आया
उसने क्या सोचा था और क्या हो गया था
कई समस्याएँ और भी खड़ी हो गयी थी
फैक्ट्री की लेबर ने कोर्ट केस कर दिया था
उनका कहना था की उन्हें अचानक निकाला गया है
उन्हें और भी पैसा मिलना चाहिए
बाज़ार जिन-जिन लोगों का जो भी पैसा उसने देना था
उसने सारा चुकता दे दिया था
पर जिन से उसने लेना था उनमे से काफी दुकानदारों ने रज्जन का पैसा रोक लिया था
तब के जूता दुकानदारों की आदत थी
" माल देते रहो तो ,पिछला पैसा लेते रहो
   माल देना बंद तो ,पिछला पैसा ख़तम "

इधर रज्जन फैक्ट्री बंद कर चुका था और
उधर उसका गांव वापस जाने का सपना टूट गया था
बड़ी विकट परिस्तिथी थी
अब उसने सोचा की अब वो अपने पैसे को कहीं इन्वेस्ट कर देगा
और दिल्ली में ही रह कर गांव आता-जाता रहेगा
रज्जन इस समय काफी अकेला पड़ गया था
बच्चे छोटे थे
और वो खुद ,अपना मन किसी के सामने ठीक से खोल नहीं पा रहा था

(समाज में अच्छे लोगों के पास अक्सर किसी दूसरे के लिए समय कम ही होता है
पर कुछ ऐसे धोखेबाज़,चाटुकार लोग होते है जो हमेशा किसी को ठगने की फ़िराक में रहते हैं,
और इनके पास तो समय ही समय होता है शिकार फाँसने के लिए  )

ऐसे ही कुछ लोग रज्जन को इन दिनों मिल गए
रज्जन को अपना बिखरा हुआ पैसा इन्वेस्ट करना था
और ऐसे ठग लोगों के पास तो ऐसी स्कीम्स हमेशा होती हैं ,
जो दिखती कुछ और हैं और होती कुछ और हैं
कई जगह रज्जन का पैसा डूबा
उसके साथ खूब ठगी हुयी
ऐसे ठग अलग-अलग नामों से लगातार उसे मिलते रहे
कहीं कोई फ्रॉड शेयर ब्रॉकर  ,
तो कही पॉपुलर के पेड़ों की फ़र्ज़ी स्कीम ,
और कहीं कच्ची कॉलोनियों में नकली कागज़ो वाले प्लॉट
और फिर उन जमीनों पे होते हुए कब्जे
उसकी पूरी ज़िंदगी की खून-पसीने की कमाई का करीब आधा पैसा इन ठगों के द्वारा बेदर्दी से लूटा गया
और जो तनाव और मानसिक परेशानी हुयी वो अलग से
वो तो अच्छा हुआ की 1988 के एक अच्छे दिन
उसने एक रिहायशी प्लाट पीतमपुरा में खरीदा
और एक इंदरलोक में
जिसमे उसका बचा हुआ पैसा वहां इन्वेस्ट हो गया
( यही दो इन्वेस्टमेंट उसके आने वाले जीवन के पिलर ऑफ़ स्ट्रेंथ बने )

धीरे-धीरे करके चार साल में रज्जन ने अपना पीतमपुरा का घर बना लिया
अब एक नयी समस्या थी
1992 में उसका नया घर बनकर तैयार था
पर सावी और बच्चे त्रिनगर छोड़ना ही नहीं चाहते थे
क्युकी उनके सारे रिश्तेदार और दोस्त तब तक त्रिनगर में ही रहते थे
(हालाँकि बाद के वर्षों में सारे रिश्तेदार एक-एक करके पीतमपुरा रहने आ गए  ,
रज्जन काफी दूरदर्शी था तो सबसे पहले ही निकल आया था )
बदलाव हमेशा मुश्किल होता है
सावी और बच्चे इसके लिए तैयार ना थे
( इसी वजह से 2 बार तो ऐसा भी हुआ के रज्जन ने गुस्से में नया घर बेच देना चाहा )
रज्जन हमेशा से जिद्दी, दृढ़ निश्चयी और दूरदर्शी था ,
उसको पता था की त्रिनगर अब एक बड़ा इंडस्ट्रियल एरिया बन गया है ,
हर घर में फैक्ट्री है
जिसका धुँआ और कलर का पोलुशन स्वास्थ्य के लिए बहुत खराब है
तो अब यहाँ रिहाइश रखना ठीक नहीं है
एक सुबह उसने एक खाली ट्रक मंगवाया
मज़दूर घर का सामान लोड करने लगे
अब सावी और बच्चे मज़बूर हो गए थे
उन्हें पीतमपुरा आना ही पड़ा
उस दिन तक पीतमपुरा के उस घर में ना लाइट लगी थी
ना पानी का कनेक्शन आया था
5 -6 दिन बाद ये सब लगा ,
तब तक सारा परिवार उस घर में बगैर बिजली-पानी ही रहा
ऐसे तुरंत फैसले लेता था रज्जन :)
(रज्जन के उस तुरंत लिए फैसले पर आज भी सारा घर खूब हँसता भी है और सराहता भी है :) )

पीतमपुरा आने के बाद रज्जन को कुछ बहुत अच्छे लोग मिले
जिनके पास समय भी था और दोस्ती में जिनका कोई स्वार्थ भी नहीं था
नरेंद्र जी उसमे से एक थे
रज्जन और नरेंद्र के शौक भी काफी एक जैसे थे
रोज़ सुबह पंजाबी बाग़ क्लब में स्विमिंग करना ,
रोज़ शाम को घर पर ही ताश खेलना,
खुलकर हँसी-मज़ाक करना  ,
फल और ऑमलेट खाना :)

अब रज्जन पुरसुकून था
कुछ सकारात्मक ठहराव आ रहा था ,
जीवन में।


Sunday, May 24, 2020

प्रवासी, भाग-8

1977 से 1987 तक के दस साल
रज्जन के जीवन या कहें रज्जन के बिज़नेस जीवन के स्वर्णिम साल थे
उसने जो भी किया ,बढ़िया हुआ
जहा पैसा लगाया, वही पैसा बनाया
उसने अपने गांव में और जमीन खरीदी
और अब उसने दिल्ली में अपना घर भी खरीद लिया
ये रामनगर,त्रिनगर में एक अच्छा ,बड़ा ,खुला ,हवादार 3 कमरों वाला घर था
ग्राउंड फ्लोर पे पूरा एक हॉल था
तीनो कमरे फर्स्ट फ्लोर पे और बीच में आँगन
और सेकंड फ्लोर पे पूरी छत
सावी ने पिछले पांच सालों में पांच बार किराये के अलग-अलग ,एक कमरे के घर बदले थे
सावी को अब जाकर लगा के उसके जीवन में सुख के दिन आ गए
इतने साल किराये पे रहते हुए
मकान मालिकों की टोका-टोकी बर्दाश्त करते-करते अब
वो अपने खुद के घर की मालकिन बन गयी थी
पास -पड़ोस बहुत अच्छा था
जल्द ही सबसे जान-पहचान भी हो गयी
तीनों बच्चे पवन,ममता,मुकेश भी अब क्रमशः 5 ,3  और 1 साल के हो गए थे
( वैसे बेटे पवन ने ढाई वर्ष की उम्र में खुद ही अपना नाम बदल कर पवन से मनोज कर लिया था , :)
अब ये पवन ने अपना नाम खुद ही कैसे और क्यों बदला ये एक अलग कहानी "दो-दो मनोज" में फिर कभी )
अब पवन स्कूल जाने लगा था
रज्जन ने एक सेकंड हैंड ब्राउन अम्बस्सडोर कार भी खरीद ली थी
ड्राइवर भी रख लिया था
उसका स्विमिंग का शौक भी फिर से लौट आया था
अब उसने दिल्ली के नामी फाइव स्टार होटल्स में स्विमिंग करना शुरू किया
रिश्तेदारों के बच्चे उसके घर रहने आते ,तो वो अपने बच्चो के साथ उनको भी स्विमिंग के लिए लेकर जाता
बच्चों को स्विमिंग सिखाना और उन्हें घुमाना ,उनके साथ हंसी-मज़ाक करना
उसे अच्छा लगता था

रज्जन दिन-रात पैसा कमाने, समाज सेवा करने ,
राजनैतिक लोगों से मेल-जोल बढ़ाने में व्यस्त रहने लगा
जो कोई भी जरूरतमंद रिश्तेदार या जानकार रज्जन के संपर्क में आया
रज्जन ने दिल खोल के सबकी सहायता की
उसने परिवार की कई लड़कियों की शादी रज्जन और सावी ने अपने घर से कराई
करीब 8 -10 लोग तो ऐसे भी रहे जो रज्जन की फैक्ट्री "बंगाल फुटवियर" में काम करने आये
उन्होंने काम सीखा और फिर रज्जन ने पैसे देकर ,
उन्हें खुद की जूता फैक्ट्री लगाने में सहायता की
(आज वो सब फुटवियर इंडस्ट्री में रसूखदार फैक्ट्री वाले हैं और समय समय पर
  रज्जन के उपकार को याद करके आज भी सम्मान देते हैं )

इस काल में एक वक़्त ऐसा भी आया जब त्रि-नगर में "अग्रवाल समाज" बन रहा था
रज्जन और सावी दोनों इसके फाउंडर मेंबर बने
अग्रवाल समाज त्रि-नगर ने धर्मशाला ,डिस्पेंसरी ,स्कूल जैसी कई संस्थाए त्रिनगर में स्थापित की ,
जो आज तक भी अच्छे से काम कर रही हैं

तभी एक अन्य बड़ी संस्था "पीवीसी कंपाउंड एंड मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन " के चुनाव थे
ये संस्था पुरे भारत लेवल की संस्था थी
चुकी उस वक़्त लगभग सारी बड़ी जूता फैक्ट्री मायापुरी में
और छोटी जूता फैक्टरियां त्रिनगर में हुआ करती थी
तो इस संस्था पे मायापुरी के बड़े फैक्ट्री वालों का ही होल्ड रहता था
त्रिनगर से कोई कभी चुनाव में उतरता ही नहीं था
रज्जन ने इस परिपाटी को तोड़ा
वो ना केवल चुनाव लड़ा, बल्कि प्रेजिडेंट पद जीता
और इतनी बड़ी संस्था को 2 साल लीड किया

कुल मिलाकर रज्जन के जीवन में सब एकदम बेहतरीन चल रहा था
पर 1987 का साल आते-आते रज्जन का मन काम से ,
दिल्ली के जीवन से ऊबने लगा था
उसको लगता था की जितना पैसा उसने कभी सपने मे भी नहीं सोचा था
उससे कहीं ज्यादा पैसा वो कमा चुका था
अब वो दिल्ली की पोलुशन भरी लाइफ से
वापस अपने गांव जहांगीरपुर लौट सकता था  ,
अब रज्जन गांव में रहकर भी एक अच्छा और सुकून भरा जीवन जी सकता था

( ये एक टिपिकल प्रवासी-मनस्तिथि होती है , 
जो कोई प्रवासी अपना गांव छोड़ कर शहर या विदेश जाता है ,
तब हमेशा उसके दिमाग में एक संख्या या एक मील का पथ्थर होता है के 
यहाँ तक पहुंचकर मैं अपने गांव या देश वापिस लौट जाऊंगा )

"दुसरी तरफ शहर अपना पैसा कभी बाहर ले जाने नहीं देते ,
शहर कहता है - मेरा पैसा मेरे अंदर ही रहेगा ,
यहाँ जो मौज-मज़ा करना है ,घर-बार बनाना है बना लो पर 
मेरा पैसा शहर में ही रहेगा,कभी गांव नहीं जा सकता  "

( "आप देख ही सकते ही आज करोड़ों प्रवासी मज़दूर अपने गांव वापस जा रहे है,पर सब 
     खाली हाथ, खाली पेट " )

(और इसी वजह से आज तक भी शायद ही कोई NRI कभी लौट कर अपने देश आ सका हो , सबके कारण अलग-अलग हो सकते है ,पर लौट कर ना आ पाना , एक हक़ीक़त है )

इस समय सन 1987 में रज्जन का काम बेहतरीन चल रहा था
ऑटो पायलट मोड पे था
मतलब वो खुद काम को ना भी देखे तो भी
काम करने वाले लोग भी काम को चलता रख सकते थे
सावी ने समझाया - सब लोगों ने समझाया-
"लोग तो काम में नुक्सान होने पे काम बंद करते है
पर आप तो चले-चलाये काम को बंद करने का सोच रहे हो "
पर रज्जन की वही पुरानी अचानक ,तुरंत निर्णय लेने की आदत
और उस समय की त्रिनगर की सबसे बड़ी फैक्टरियों में शुमार एक फैक्ट्री ,
"बंगाल फुटवियर" 14 साल कामयाबी से चलने के बाद 1987 में अचानक
 एक दिन ,रज्जन ने खुद ही बंद कर दी

क्युकी ,
एक प्रवासी को लौट कर अपने गांव वापिस जाना था।

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प्रवासी,भाग-7

ये सन 1977 की बात है
रज्जन के घर में मुकेश का आना था
और रज्जन के काम को जैसे पंख लगना था
सौभाग्य और धन-धान्य अब रज्जन के पास खुदबखुद आ रहा था
उसके बनाये हुए सारे प्रोडक्ट्स चल रहे थे और
रज्जन को हर महीने अच्छा मुनाफ़ा आ रहा था
सब रज्जन को राय दे रहे थे कब तक किराए के 1 कमरे में रहोगे
अब तो अपना घर ले लो
सावी भी यही चाहती थी
पर रज्जन का मन तो कुछ और ही था
कुछ भी सामान्य करना तो उसने कभी सीखा ही कहाँ था
उसको याद थी अपने बालपन की वो कसम
वो वादा जो कभी उसने खुद से किया था
"मेरे लाला जमींदार थे, और मुझे उन्हें फिर से जमींदार बनाना है "
रज्जन गांव गया
भाई केशव को बोला - "कोई बिकाऊ बड़ी जमीन ढूंढो"
भाई केशव ने खूब समझाया
रज्जन के लाला तो सुनकर खूब गुस्सा हो गए ,बोले-
"3 -3 बच्चों के साथ किराये के 1 कमरे में रहता है
फैक्ट्री भी किराए की है
पहले दिल्ली में घर खरीद , फैक्ट्री खरीद
यहाँ खेती की जमीन लेकर क्या करेगा तू
कहीं का लाट साब है क्या तू "
रज्जन बोला -"आपको क्या , मेरा पैसा है , मैं चाहे आग लगाऊ "
सब निरुत्तर हो गए

आखिरकार 70 बीघा का एक बड़ा खेत मिला
(उस समय जहांगीरपुर के आस-पास के गांव में इतना बड़ा एक खेत किसी और के पास नहीं था )
नकद पैसे देकर खरीदा गया
जब लाला अपने नाम जमीन के कागज़ कराने कचहरी जा रहे थे तो
सब ने तो देखा के
लाला बहुत गुस्से में है,लगातार रज्जन को गाली दे रहे हैं
पर जो रज्जन ने देखा, वो शायद और किसी ने भी नहीं देखा
आज उसके लाला एक फुट और लम्बे लग रहे थे
वो आज पहले से और ज्यादा तेज चल रहे थे
लग रहा था जैसे आज जमीन उनके पैरों को छू ही नहीं पा रही
बरसों बाद उनका कुर्ता आज कलफ लगा हुआ था
चेहरे पे दिव्य आभा थी
रज्जन को आज अपने लाला ठीक वैसे ही लग रहे थे जैसे
उसने कभी पुराने लोगों से लाला के जमींदारी के किस्से सुनकर
अपने मन में उनकी छवि बनायी हुयी थी
वो छुपा रहे थे पर उनकी आँखों के कोर गीले थे
वो एक हाथ से कागज़ साइन कर रहे थे
दूसरे हाथ से उन्होंने पास बैठे रज्जन का हाथ कस के पकड़ा हुआ था
रज्जन ने सब के लिए पेड़े मंगवाए थे
सब पेड़े खाकर , बधाई देकर चले गए ,पर
रज्जन और रज्जन के लाला देर तक वहीँ कचहरी में एक पेड़ के नीचे चुपचाप बैठे रहे
 वो दोनों आपस में कोई बात नहीं कर रहे थे
अचानक लाला झटके से उठे ,नकली गुस्से से बोले-

"ये तेरी जमीन है, जब बेचो चाहे ,अपने नाम करानो चाहे
बता दियो , मोपे कोई एहसान ना कियो  है तूने "

रज्जन हँसते हुए उठा , बोला-
"हां हां मालूम है मोए , ये मेरी जमीन है "
"अब घर चले , भूख लग रही है "

रज्जन और रज्जन के लाला घर आ गए
अम्माँ चूल्हे पे रोटी सेंकते-सेंकते ,
नम आँखों से रज्जन को खाना खाते देख रही थी
उसे आज फिर वही छोटा सा रज्जन दिख रहा था ,
जो ऐसे ही खाना खाते-खाते अक्सर कहता था-
"अम्माँ , मेरे लाला जमींदार थे ना, बोल ना, थे ना 
तू देखिओ  ,एक दिन मैं उन्हें फिर से जमींदार बना दंगो "  
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दीपू के भैया मनु की शादी

बात सन 1996 की है
तब दीपू एक सात साल का
छोटा सा,प्यारा सा,सांवला सा :) बच्चा था


दीपू की ख़ास बात थी उसके बाल
वो सामने से ऐसे थे
जैसे मोर की कलगी होती है ,
या फिर दूल्हे के सेहरे पे लगा ब्रोच होता है  :)
वैसे तो दीपू हमेशा ही खुशबाश रहता था
पर आज वो कुछ ज्यादा ही खुश था क्युकी
आज उसके बड़े भैया मनु की शादी थी

घर में काफी भीड़-भाड़ थी ,दूर-दूर से रिश्तेदार आये हुए थे
हर तरफ गहमा-गहमी थी
तभी डोर बेल बजी
दीपू भाग के झज्जे में गया ,उसने पहली मंजिल से ही झाँक के देखा
घोड़ी आ गयी थी
( भारत में हिन्दू लोगों में शादी में दूल्हा घोड़ी पे बैठ के दुल्हन ब्याहने जाता है :) )
उसने अंदर आकर अपने पापा मुरली और ताऊ राजेंद्र जी को उत्साह से बताया-

"घोड़ी आ गयी,
 घोड़ी आ गयी "

ये सुनकर मुरली और राजेंद्र जी भी बहुत खुश हो गए
और जल्दी से नीचे गए
दीपू फिर से भाग के छज्जे पे आ गया
और नीचे घोड़ी को निहारने लगा
वो एक बहुत ही सुन्दर  ,एक दम सफ़ेद ,ऊंचे कद की , तंदुरुस्त घोड़ी थी

उसने ऊपर से सुना ,ताऊ राजेंद्र जी  ,हँसते हुए उसके पापा मुरली से कह रहे थे-
"मुरली तू अपनी शादी में घोड़ी पे नहीं बैठ पाया था ना " :)
मुरली- "भाईसाहब आपको नहीं पता क्या ? :)
आपने ही तो मेरी शादी इतनी जल्दबाज़ी में करा दी थी ,
हम तो लड़की देखने गए थे ,
पसंद आ गयी तो आपने मुझे घेर के उसी दिन २ घंटे में वहीँ मेरी शादी करा दी थी"
"मेरी तो घोड़ी चढ़ने की तमन्ना दिल ही दिल में रह गयी " :)
दीपू के पापा मुरली हँसते हुए बोले थे

राजेंद्र ताऊ जी-"कोई बात नहीं मुरली तेरी ये तमन्ना आज पूरी किये देते हैं "
"इस साले घोड़ी वाले को थोड़ी देर के काम के लिए इतने पैसे दिए हैं
अब ये आ भी जल्दी गया है तो चल तुझे घोड़ी बैठने का एक्सपीरियंस कराते हैं"
मुरली जोर-जोर से हंसने लगा , बोला -
"भाईसाहब मज़ाक कर रहे क्या
राजेंद्र जी  - "अरे नहीं मैं मज़ाक क्यों करूंगा "
मुरली- "अरे भाईसाहब कॉलोनी में लोग क्या सोचेंगे ? "
राजेंद्र जी - "अबे क्या सोचेंगे ,हमने क्या किसी साले की भैस खोली है "
"पूरे पैसे दिए हैं , आजा बैठ जा "
मुरली हँसते हुए बोला - " नहीं भाईसाहब मैं तो नहीं चढूँगा "
राजेंद्र जी - "चल मैं चढ़ता हूँ ,बाद में तू चढ़ जाइयो "

राजेंद्र जी घोड़ी वाले से बोला - "चल भाई पहले हम ट्राई करेंगे "
घोड़ी वाला बेचारा कभी राजेंद्र जी का मुँह देखे कभी मुरली का :)
मरता क्या ना करता ,उसने देखा की
ये दोनों दूल्हे तो गुट्टे मतलब नाटे हैं :)
मेरी घोड़ी इतनी ऊंची है,ये चढ़ेंगे कैसे
तो वो बोला- "बाउ जी आप इस मुंडेर पे खड़े हो जाओ ,
मैं घोड़ी यहाँ लाता हूँ "
"यहाँ से आप चढ़ जाओगे"
(उसने घर के बाहर बने ऊँचे चबूतरे की और इशारा किया)
राजेंद्र जी उस चबूतरे पे चढ़ गए
घोड़ी वाला घोड़ी पास ले आया और पहले राजेंद्र जी को घोड़ी पे बैठा दिया


घर के बिलकुल सामने बड़ा सा पार्क था जिसके चारों और करीब 60 कोठियां बनी हुयी थी
अब घोड़ी वाले ने राजेंद्र जी को घोड़ी पे बिठाकर पार्क का एक पूरा चक्कर लगवाया
चक्कर पूरा करके आते हुए रज्जन हँसते हुए मुरली से बोला -
"देख मुरली मैं तो दूसरी बार घोड़ी पे बैठ लिया ,
तू कब बैठेगा ,आजा "
"अब तू आजा "
राजेंद्र जी को घोड़ी पे बैठ चक्कर लगाते देख मुरली की भी झिझक खुल गयी थी
राजेंद्र जी के उतरते ही अब वो भी उस चबूतरे पे चढ़ा
और घोड़ी वाले ने अब मुरली को घोड़ी पे बिठा दिया
मुरली ने बड़ी शान से पूरे पार्क के २ चक्कर लगाए
उसे तो ऐसा ही लग रहा था क आज उसी की शादी है
और ये उसकी घुड़चढ़ी हो रही है
उसके दिल का एक अरमान जो कभी अधूरा रह गया था
आज पूरा हो गया था :)

ऊपर पहली मंज़िल के झज्जे पे खड़ा दीपू
जोर-जोर से हंस रहा था
उसने देखा था की पड़ोसी भी
जो अपने-अपने झज्जो पे या रोड पे खड़े थे
उन दोनों भाइयो राजेंद्र और  मुरली को देख कर हंस रहे थे
कुछ बुरा सा मुँह भी बना रहे थे
पर ये दोनों भाई राजेंद्र और मुरली तो जैसे इस सब से बिलकुल ही अनजान थे :)
वो दोनों भाई तो बस अपनी ही धुन में मस्त थे
वो दोनों जोर- ज़ोर से खुद अपने ऊपर ही हंस रहे थे

एक बचपना था उन दोनों में :)

दीपू को बार-बार ताऊ जी रज्जन की बात कानों में सुनायी दे रही थी-

"अबे लोग क्या सोचेंगे ,
   इससे हमें क्या ? 
   हमने क्या किसी साले की भैस खोली है "

आज 24 साल बाद भी जब-जब मनु की शादी की चर्चा होती है तो
सब इस घटना को याद करके इतना हँसते है :)

सच तो ये है की हमें अपने अंदर के बचपन को कभी मरने नहीं देना चाहिए :)
जिस दिन ये बचपन मर जाता है ,
हम बूढ़े हो जाते है,
और फिर तेज़ी से मरने लगते हैं।

( ये एक सच्ची कहानी है :) )

#बचपन #bachpan   manojgupta0707.blogspot.com


Saturday, May 23, 2020

प्रवासी,भाग-6 (RIVISED) PLZ READ AGAIN :)

रज्जन ,हॉस्पिटल में डॉक्टर शालिनी के कमरे में ,
उनके सामने खड़ा था
उन्हें धन्यवाद देने के लिए वो हस्पताल के बाहर से ही कुछ फल खरीद लाया था
डॉक्टर शालिनी सर झुकाये अपनी डायरी में जल्दी-जल्दी कुछ लिख रही थी 
वो बहुत परेशान ...बदहवास सी लग रही थी
डॉक्टर शालिनी ने रज्जन को बैठने का इशारा किया
पर कुछ बोली नहीं,  बस रज्जन को देख रहीं थी
उनका ऐसा व्यवहार रज्जन के दिल में आशंकाये पैदा कर रहा था
आखिर रज्जन ही बोल पड़ा -" डॉक्टर साब सब ठीक है ना ?"
फिर कुछ सेकण्ड की खामोशी के बाद
डॉक्टर शालिनी ने धीरे से बोलना शुरू किया-

"मिस्टर गुप्ता I AM REALLY VERY SORRY
  आपका एक बच्चा बच नहीं पाया
 उसकी जिम्मेदार मैं हूँ ,
 ओप्रशन के वक़्त गलती से मुझसे ही उस बच्चे की गर्दन पे नाइफ लग गया था "

ये कह के वो चुप हो गयी थी
वो रो रहीं थी
रज्जन हतप्रथ रह गया
एक झटके से वो कुर्सी से खड़ा हुआ
फल उसके हाथ से छूटकर नीचे गिर गए थे
रज्जन गुस्से में कांप रहा था
वो चीख कर बोला- "डॉक्टर आप अगर महिला ना होती ,तो मैं आपका खून कर देता
पर मैं आपको भी छोडूंगा नहीं
मैं आप पे केस करूँगा
बर्बाद कर दूंगा मैं आपको "

और वो भागता सा जाने क्या  बकता हुआ
तेजी से कमरे से बाहर निकल आया
पीछे से डॉक्टर शालिनी आवाज़ लगाती रह गयी-
"मिस्टर गुप्ता,आप मेरी बात तो सुनिए, I AM SORRY मिस्टर गुप्ता "

रज्जन भागता हुआ हस्पताल से बाहर ही आकर ही रुका
वो फुटपाथ पे बैठ के जोर-जोर से रोने लगा 
अनगिनत ख़याल,
अच्छे, बुरे, बदले के,
वो वही अकेले बैठे-बैठे मुँह ही मुँह में डॉक्टर शालिनी को गंदी-गंदी गालियां दे रहा था 
हज़ार तरह की आशंकाये उसके दिलो-दिमाग पर हावी हो रही थी
एक भावना आ रही थी तो
एक जा रही थी
गुस्सा, दर्द, विवशता ,
वो सोच रहा था की काश
वो सावी को किसी प्राइवेट हस्पताल में लेजा सका होता तो
आज उसका बच्चा ज़िंदा होता
इधर उसे अपने पेट में तेज दर्द सा महसूस हुआ ,तो ध्यान आया
वो सुबह का घर से सूखी चाय पी के निकला था
सोचा था की सदर बाजार में कुछ खा लेगा
पर पूरे दिन काम की भागमभाग रही
और फिर सावी की खबर सुनते ही वो हस्पताल भागा और .....

कुछ देर बाद वो उठा ,पास के नल पे अच्छे से मुँह-हाथ धोया
रिक्शा पकड़ा
कनॉट प्लेस आया
उसने भरपेट खाना खाया
फिर चाय भी पी
फिर कुछ और देर शांत वहीं ऐसे ही बैठा रहा

अब जब शांत मन से सोचा तो ख़याल आया-
"मैं तो डॉक्टर शालिनी को धन्यवाद देने आया था
 अगर वो खुद अपनी गलती नहीं बताती तो
क्या मुझे कभी पता चलता ?
मानो कहीं से पता चल भी जाता
तो भी क्या डॉक्टर शालिनी की मुझसे कोई दुश्मनी थी ?
क्या उन्होंने जान-बूझ कर ये गलती की है ?
वो तो अपना फ़र्ज़ ही निभा रहीं थीं ना
और क्या ये उनकी भलमनसाहत नहीं की वो
कम से कम वो अपनी गलती पे शर्मिन्दा हैं ?
कितने लोग होते जो अपनी गलती मानते हैं
और शर्मिंदा होते हैं,
माफी मांगते हैं ?

फिर एक बार, पेट की आग शांत होते ही
रज्जन का मन भी शांत हो चला था
उसके दिल और दिमाग ने एक साथ संयम से काम करना शुरू कर दिया था
वो वापिस हस्पताल की और चल पड़ा
डॉक्टर शालिनी से मिलने
उसने उन्हें देने के लिए फिरसे फल खरीदे थे

डॉक्टर शालिनी उसे आया देखकर चौंकी थी
वो कुछ बोलती इससे पहले ही रज्जन बोल उठा-

"थैंक यू डॉक्टर ,
आप परेशान ना हों
आप अपना मन शांत रखें
मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है
जो हुआ वो मेरा भाग्य था
आप कृपया मेरी बीवी और बच्चे का ख़याल रखियेगा "

डॉक्टर शालिनी की सूनी आँखों में मुस्कराहट आ गयी थी
उन्होंने भी सर नीचे कर सिर्फ इतना कहा - "SURE "

अब रज्जन हर रोज़ सुबह और शाम हस्पताल  जाता था
सावी की तबियत तो संभल गयी थी
पर नवजात बेटा अभी भी सावी से अलग "नर्सरी चाइल्ड ऑब्जरवेशन सेल" में था
रज्जन हर रोज़ डॉक्टर शालिनी से पूछता की कोई दवाई ,कोई ऐसी चीज़
जो उसके बच्चे के लिए चाहिए और हस्पताल में ना हो तो बतायें
उसके बार-बार पूछने पे डॉक्टर शालिनी बोली-
"मिस्टर गुप्ता जो दवाइयां आपके बेटे को चाहिए वो तो हमारे पास हैं
पर कुछ दवाइयाँ  दूसरे कुछ बच्चों को चाहिए ,वो हमारे स्टॉक में नहीं हैं ,
और उन बच्चों के माँ-बाप इतने गरीब हैं ,वो खरीद के ला नहीं पा रहे ,
अगर आप चाहें तो आप इनमें से कुछ ..........
(डॉक्टर शालिनी ने एक लिस्ट रज्जन को थमाते हुए हुए कहा )
रज्जन ने वो लिस्ट ले ली
वो अपनी मार्किट सदर बाजार गया ,
आज पेमेंट मिलनी थी  ,
वही से "भगीरथ पैलेस मार्किट" गया
(तब 1977 में भी ये पुरानी दिल्ली में दवाइयों की सबसे बड़ी होलसेल मार्किट है )
लिस्ट में लिखी सारी दवाइयां और दूसरी चीज़े ली
शाम को वो एक बड़ा सा कार्टन लिए डॉक्टर शालिनी के सामने खड़ा था
और डॉक्टर शालिनी हैरानी और अविश्वास से कभी रज्जन को कभी उस कार्टन को देख रही थी
वो बस इतना ही बोली-
"मिस्टर गुप्ता आप क्या पूरी लिस्ट का सारा सामान ही ...
  मिस्टर गुप्ता आप जैसा आदमी मैंने आज तक नहीं देखा " :)
वो बेहद खुशी और नम आँखों से रज्जन को देख रहीं थी
रज्जन ,कार्टन एक कोने में रखकर ,
मुस्कुराटा हुआ सावी के कमरे की ओर बढ़ गया

(इस घटना के बारे में जब रज्जन मुझे बता रहें थे
की वो कोई दो हज़ार रूपये की दवाइयाँ थीं ,तो मैं बोला था-
"1977 मेँ दो हज़ार ,आज के तो दो लाख के बराबर होंगे और आप तो उस वक़्त खुद गरीब ....
वो हँस कर बोले थे -"मैंने हमेशा दिल की सुनी ,दिमाग व्यापार में तो लगाया पर जहाँ भावना से सोचना था वहां कभी दिमाग से नहीं सोचा,उस दिन ,उस क्षण जब मैंने वो दवाइयां ली तो बस एक ही बात मेरे दिल में थी ,
"अगर मेरा बच्चा इन दवाइयों के बिना मर रहा होता तो ... "
उनके जवाब से मैं निरुत्तर हो गया था )

सात-आठ दिन के बाद रज्जन,सावी और अपने नवजात बेटे को घर ले आया
बाद में इस बच्चे का नाम मुकेश रखा गया।

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