Monday, May 25, 2020

प्रवासी,भाग-10

पीतमपुरा का मौहोल त्रिनगर से बिलकुल ही अलग था
रज्जन को यहाँ आकर काफी सुकून मिला था 
घर बहुत अच्छा था ,
घर के ठीक़ सामने एक बड़ा सा पार्क था 
आसपास और भी काफी पार्क थे 
पोलुशन नाम की यहाँ कोई चीज़ ही नहीं थी 
हर तरफ चौड़ी-चौड़ी सड़कें ,
और सब कुछ साफ़-सुथरा,व्यवस्तिथ  
इस कॉलोनी में ज्यादातर पढ़े -लिखे नौकरी पेशा लोग रहते थे 
उसका लोगों से अच्छा व्यवहार बन गया 
नरेंद्र जी तो थे ही 
उनके अलावा भी काफी लोग थे जो रज्जन को अच्छे लगते थे 
रज्जन और सावी कॉलोनी की मंदिर संस्था के आजीवन सदस्य बने 
रज्जन ने नरेंदर जी के साथ मिलकर अग्रवाल समाज ,पीतमपुरा शुरू किया

वैसे तो रज्जन अग्रवाल समाज से त्रिनगर में 1973 से ही जुड़ गया था 
पर बाद में वहां की हरयाणा-उत्तरप्रदेश राजनीति का वो शिकार हो गया था
उसका मन खट्टा हो गया था और उसने कसम खाई थी की 
वो उस "अग्रसेन भवन" ,त्रिनगर में कभी पाँव नहीं रखेगा 
जिस भवन का प्लॉट उसने खुद ने ही अपने जीतोड़ प्रयास के बाद 
डीडीए से अग्रवाल समाज, त्रिनगर को दिलवाया था  )

असल में त्रिनगर में कभी 70 के दशक में हज़ारों प्रवासी ज्यादातर हरयाणा और उत्तरप्रदेश से आये थे
उसमे भी हरयाणा से आने वाले करीब 90 % ,
उत्तरप्रदेश से करीब 5 % और बाकी 5 %अन्य प्रदेशो से मिलाकर रहे होंगे
इन सब प्रवासियों में बहुमत अग्रवाल लोगों का था
शुरू के वर्षों में तो सब अपनी आजीविका कमाने में व्यस्त रहे 
पर जैसे ही इन सभी प्रवासियों के पास पैसे का आना बढ़ा 
पैसे के आने के साथ-साथ इन सबकी राजनैतिक महत्वकांक्षाये भी जागी
और सामजिक संस्थाओं के शीर्ष पदों पर कब्जे की खींचतान भी बढ़ी
(कुछ लोग तो यहाँ तक भी कहते है की त्रिनगर में लोग अपने बच्चो की शादी भी ये सोचकर किसी परिवार में करते हैं की ये सम्बन्ध जुड़ने से उन्हें चुनाव में कितने वोट ज्यादा मिल सकते हैं :) )
रज्जन के ,पार्षद श्री दीपचंद जी से पारिवारिक सम्बन्ध थे
वो रज्जन को बेटे सा प्यार देते थे
दीपचंद जी उस समय डीडीए के चेयरमैन बने और
रज्जन के लगातार प्रयास और दीपचंद जी से उसके पारिवारिक प्रेम के कारण
अग्रवाल समाज त्रिनगर और ब्राह्मण समाज त्रिनगर को बड़ी धर्मशाला बनाने के लिए
डीडीए का एक-एक बड़ा सा प्लॉट शंकर चौक,त्रिनगर में मिला.
(आज उन्ही प्लॉटों  पे शंकर चौक,त्रिनगर पे ,"श्री अग्रसेन भवन" और "भगवान परशुराम भवन" बने हुए है 
इन भवनों में कई लोगों के नाम के बड़े-बड़े पथ्थर लगे हुए हैं ,पर जिसने इन भवनों के प्लॉटों को दिलवाने  में अहम् भूमिका निभाई ,उस "राजेंद्र प्रसाद गुप्ता (बंगाल फुटवियर वाले)" का कहीं कोई जिक्र भी नहीं है :)  )

रज्जन को तब लगा था की उसने समाज के लिए एक बहुत बड़ा कार्य किया है
और समाज उसको इसका सम्मान देगा
उसका ये भ्रम तब टूटा जब अगले अग्रवाल समाज ,त्रिनगर चुनाव में उसने प्रधान पद के लिए अपना नाम भरा
और उसपर ये कहकर नाम वापिस लेने का दवाब बनाया गया की

" तू यू.पी. से है ,यहाँ तो कोई हरियाणा वाला ही प्रधान बनेगा "

रज्जन का मन टूट गया , उसने अपना नाम वापिस ले लिया
फिर कभी उसने अग्रवाल समाज,त्रिनगर में सक्रिय कार्य नहीं किया
और फिर 1992 में पीतमपुरा शिफ्ट होने के बाद तो ये दूरियां और गहरी हो गयी

अब यहाँ 1992 के बाद उसने पीतमपुरा को ही अपने सामजिक कार्यो की कार्यस्थली बना लिया
यहाँ भी लोगो के पास पैसा बहुत था
पर वो आपसी खींचतान नहीं थी जो त्रिनगर में थी

यहाँ लोगों के सिर पर पैसा, ताकत, क्षेत्रवाद का वो जूनून नहीं था :) 

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