रज्जन का सपना
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रज्जन,
पराधीन भारत में उत्तरप्रदेश राज्य के एक बहुत छोटे से ,पिछड़े हुए गांव जहांगीरपुर में 1942 में पैदा हुआ
घर में दादा-दादी, माँ-बाप के साथ 5 और भाई-बहन थे
मतलब कम से कम 10 खाने वाले पेट
और कमाने वाले केवल २ हाथ ,उसके लाला यानि पिताजी के
रज्जन के लाला कभी बड़े जमींदार हुआ करते थे
( जैसा रज्जन ने मुझे बताया था , अपने वक़्त में वो 60s की हिंदी फिल्मों में दिखने वाले, घोड़ी दौड़ाते हुए ,हाथ में चाबुक रखने वाले जमींदार थे :)
पर वक़्त की मार थी-
आज़ादी के बाद जमींदारी उन्मूलन हुआ
आज़ादी के बाद जमींदारी उन्मूलन हुआ
और उनकी सारी जमीन छिन गयी, काश्तकारों की हो गयी
सरकारी आदेश था की जो जिस जमीन को बोता है ,मतलब खेती करता है ,वो जमीन उसी की हुयी
अब कौन जमींदार खुद खेती करते थे
तो सारी जमीन काश्तकारों (भूमिहीन मज़दूर किसानों ) की हो गयी
और जो थोड़ी बहुत बची वो भी मुकदमों की भेंट चढ़ रही थी
{ क्योकि रज्जन के लाला ने सरकारी आदेश के खिलाफ बहुत सारे कोर्ट केस कर दिए थे }
तो अब लालाजी का सारा वक़्त उन कोर्ट केसो को जीतने की तैयारी और कोर्ट आने-जाने में बीतने लगा
रज्जन ये सब देखते हुए बड़ा हो रहा था
रूपये-पैसे की बहुधा तंगी थी
रूपये-पैसे की बहुधा तंगी थी
रज्जन देख रहा था की उसके लाला की लाचारी ऐसी ,की चूँकि जमींदार हैं (या कहें थे ) ,तो आज चाहे नाम भर के ही जमींदार हों ,
तो किसी के सामने लाचार भी दिख भी नहीं सकते , रोना तो कोसों दूर की बात
तो किसी के सामने लाचार भी दिख भी नहीं सकते , रोना तो कोसों दूर की बात
और किसी से सहायता मांगने से बेहतर तो मर जाना अच्छा समझते थे उसके लाला
तो रज्जन बचपन से ही अपने पिता की ये लाचारी और आत्म-स्वाभिमान देखते हुए बड़ा हुआ
खुद पढ़ा ,साथ में पिता की छोटी सी दूकान भी चलाई
10 वीं कक्षा का छात्र रज्जन अकेले दिल्ली जाता था ,अपनी दुकान के लिए माल खरीदने
एक दिन रज्जन ने किसी को लाला जी की पीठ पीछे कहते सुन लिया- "लाला तुमाई जमींदारी चलो गयी पर बल अभो ना गयो ,बा बी चलो जायगो "
रज्जन के बाल दिल में ये बात खंजर की तरह चुभ गयी
अब रज्जन का बस एक ही सपना था
"मेरे लाला जमींदार थे और मुझे अपने लाला को फिर से जमींदार बनाना है "
समय बीता जा रहा था
अपने सपने के पीछे रज्जन कोलकाता, दिल्ली, पंजाब जाने कहाँ कहाँ नहीं गया
[पर सफलता पर अभी भी कोसों दूर ही थी
आखिरकार 1973 में रज्जन दिल्ली गया
(अपनी अम्माँ और पत्नी के गहने गिरवी रखकर दिल्ली गया था वो )
अपना छोटा सा कारखाना लगाया
आखिरकार इस बार ईश्वर ने उसका साथ दिया
कुछ अच्छा होने लगा
हालांकि उसका रहने का कमरा भी किराये का था और कारखाने वाली जगह भी
पर सालोँ बाद ज्यूही उसने पहली बार अच्छे पैसे कमाए ,
ना खुद के लिए घर खरीदा
ना कारखाने की जगह
और ना और कोई अपनी सुख-सुविधा का सामान
उसने खरीदा अपने लाला के नाम एक बड़ा सा खेत ,अपने गांव में ही
रज्जन को अपना सपना आज भी याद था
"मेरे लाला जमींदार थे और मुझे अपने लाला को फिर से जमींदार बनाना है"
और उसने अपना सपना पूरा किया था
अब रज्जन के लाला फिर से जमींदार बन गए थे
अब रज्जन के लाला फिर से जमींदार बन गए थे
(ये कहानी लिखते हुए लगातार मेरी आँखों में आंसू बह रहे है और शरीर का हर रोंगटा खड़ा है
आंसू यकीनन ख़ुशी के हैं :))
बच्चों का मन भगवान् की तरह निर्मल होता है
वो कुछ सोचता है तो उसमे फायदा,नुकसान नहीं सोचता
पवित्र संकल्प होता है वो
जैसे जैसे हम बड़े हो जाते हैं तो
मोह,माया, अवसर, दुनियादारी....और जाने क्या क्या अला-बला हमें दूषित कर देती है
पवित्र संकल्प होता है वो
जैसे जैसे हम बड़े हो जाते हैं तो
मोह,माया, अवसर, दुनियादारी....और जाने क्या क्या अला-बला हमें दूषित कर देती है
आप भी सोचिये अगर आपने कभी कोई ऐसा सपना देखा था
जो आपके किसी अपने के लिए बहुत अहमियत रखता था
और अब समय की गति में बहकर कहीं आप उसे भूल तो नहीं गए ?
अभी भी समय है
वरना एक दिन समय हाथ से निकल जाएगा
तब सिर्फ आत्मग्लानि और पश्चात्ताप।
(रज्जन का पूरा जीवन ही पढ़ने योग्य है, चाहे तो मेरे blog
manojgupta0707.blogspot.com
पर आकर कहानी " प्रवासी-1 से प्रवासी-13 " में पढ़ सकते हैं. }
हृदय स्पर्शी गाथा।🙏
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