Sunday, May 10, 2020

शराफत वाला बैट

मेरा जन्म 1973 त्रिनगर का है
तब त्रिनगर एक कच्ची कॉलोनी हुआ करता था
( कमाल ये है की 47 साल बाद भी कच्ची कॉलोनी टर्म दिल्ली में आज भी है  :)
क्या करें ,
DDA (दिल्ली विकास प्राधिकरण) को जो काम दिया गया था
NO प्रॉफिट NO लॉस पालिसी से लोगों को रियायती दर पर दिल्ली में अपना घर उपलब्ध कराना
DDA पता नहीं क्यों पर अपने कार्य में करीब करीब फेल रही है।

तो इसी बात का लाभ उठाकर दिल्ली के बड़े जमींदारों ,लोकल राजनेताओं और प्रॉपर्टी डीलर्स ने दिल्ली में खेती की जमीन पे ही हज़ारों कच्ची कॉलोनियाँ बसा दीं थीं
उस समय उन  कॉलोनियों में
ना बिजली
ना साफ़ पानी
ना सीवर
ना पार्क
गलियों छोटी-छोटी
और नाही कोई अन्य सामुदायिक सुविधा
बस जमीन का एक टुकड़ा भर जिस पर सर छुपाने के लिए 4 दीवारें और एक छत बनाई जा सके
( और तो और इस घर को भी तोड़ने समय-समय पर DDA /सरकारी लोग आते रहते थे/हैं  )

कॉलोनियों के नाम ऐसे रखे जाते थे जैसे
राम गुर्जर के खेत पे बनीं कॉलोनी राम नगर और कन्हैया गुर्जर के खेत पे बनी तो कन्हैया नगर
ऐसे ही विश्राम नगर, श्याम नगर,देवाराम पार्क आदि आदि
कहते है शुरू में यहाँ तीन बड़ी कॉलोनी (कन्हैया नगर,विश्राम नगर और देवाराम पार्क ) थी तो जब सरकार ने इस जगह पे बस सेवा देने की सोची तो इस पूरे इलाके को मिलाकर एक ही नाम दे दिया  "त्रिनगर"

त्रिनगर तब ऐसे गरीब प्रवासी लोगों की रिहाइश बना जो बेहतर जीवन की तलाश में
ज्यादातर हरियाणा और उत्तरप्रदेश के गावों/छोटे शहरों से यहाँ आये थे
इन सब लोगों के पास पैसे बहुत कम थे तो सर पे छत जैसी मिली वैसी सही
(पता नहीं क्यूँ पर ज्यादातर लोगो ने यहाँ आकर
प्लास्टिक चप्पल या प्लास्टिक दाना बनाने का काम ही शुरू किया)

त्रिनगर बसने के बाद इस पूरे इलाके में अब दो तरह के परिवार हो गए थे

१- जमींदार परिवार -
जो अधिकतर बड़े-बड़े घरों में रहते थे
पैसा बहुत था, जो उन्होंने अपनी खेती की जमीन पर कच्ची कॉलोनी बसाकर कमाया था
इसके अलावा वो लोग मूलतः फ़ैक्टरियो को अपनी जगह किराए पे देकर भी मासिक मोटा पैसा कमाते थे
इनमें अधिकतर पुरूषों का दिन ताश खेलकर और शराब पीकर बीतता था
इस तरह के मौहोल में इन परिवारों के लड़के भी अधिकतर दबंग हो रहे थे
उनका ध्यान भी पढ़ाई में कम और बदमाशी में ज्यादा था

और

दूसरे वो गरीब प्रवासी परिवार जो दूसरे प्रदेशों से यहाँ आये थे
जिनके पुरुष दिन-रात मेहनत करते थे
घर की महिलाये सारे काम खुद अपने हाथ से करतीं थीं
पुरे परिवार पर पैसा कमाने और पैसा बचाने का भारी दवाब था
और बच्चों पर पढ़-लिख कुछ बन जाने का
इनके घर बहुत छोटे होते थे जिसमे नीचे फैक्ट्री और ऊपर ही इनके पूरे परिवार की रिहाइश होती थी


इन दोनों तरह के परिवारों के बच्चों का आपस में बस एक ही जगह आमना-सामना होता था
और वो थी क्रिकेट खेलने की जगह
जैसे रोज़ गार्डन, सेंट्रल स्कूल प्ले ग्राउंड या फिर बी-3 लारेन्स रोड ग्राउंड
और वहाँ इन गुर्जर-जाट बच्चों का एकछत्र साम्राज्य था
वो ग्राउंड में बाद में आयें या पहले ,उनके आने के बाद बस वो ही खेलेंगे
ये अलिखित नियम था
उनके आने के बाद बाकी सब बच्चे अब अपने घर जाओ
गन्दी गालियाँ देना, किसी को भी मार-पीट  देना ,
दूसरे बच्चों से पैसे / सामान छीन लेना ,इनके लिए आम सी बात थी
इससे बाकी बच्चों का मन बहुत व्यथित रहता था
पर इसका कोई हल ही ना था
हम बच्चो को हमेशा यही सिखाया जाता था -
"के बेटा झगड़ा मत करना, चुप रहना इत्यादि इत्यादि  "

एक संडे सुबह हम सेंट्रल स्कूल के ग्राउंड में क्रिकेट खेल रहे थे के ये गुर्जर-जाट बच्चे आ गए
हम क्या करते अपना खेल बंद करके जाने लगे
उन्होंने कहा-
 "चलो एक मैच रख लेते हैं ,तुम्हारी टीम और हमारी टीम में "

हम खुश ,के चलो कम से कम खेलने को तो मिलेगा
पहले हमारी बैटिंग थी ,हमने अच्छे रन बनायें
उनकी दूसरी पारी शुरू हुयी तो उनके बैट्समैन जल्दी-जल्दी आउट होने लगे

(एक और दिक्कत ये थी की उनको आउट भी 2 - 3 बार करना पड़ता था
क्युकी वो अंपायर हमेशा अपना रखते थे और फुल बेईमानी करते थे
तो वो बस क्लीन बोल्ड ही आउट होते थे
रन-आउट ,स्टंप्ड या एलबीडबल्यू  तो वो कभी आउट होते ही नहीं थे :)

हार सामने देख वो गुर्जर-जाट बच्चे तो बहुत गुस्सा हो गए
गालियाँ देने लगे
खेल बंद कर दिया
और तो और हमारा एक नया बैट भी हमसे छीन लिया
और हमें गालियां देकर भगा दिया

वो बैट मेरा था
मुझे अपनी कमज़ोरी पर बहुत धिक्कार आ रही थी
ऐसा नहीं था की पापा मुझे फिर से बैट खरीदने के लिए पैसे नहीं देते
लेकिन अगर आपकी कोई चीज़ कोई आपसे जबर छीन लें
और आप कुछ ना कर पायें
तो ये भावना ही बहुत मन तोड़ने वाली है
आत्मविश्वास ख़त्म हो जाता है
बहुत बेचारगी थी
हम उन लोगों से लड़ भी नहीं सकते थे
मुझे आज भी याद है की उस दिन शाम को मेरे दोस्त भारत के घर मैंने "शराफत" मूवी देखी  थी
और उसके गाने की लाइन मैं भी मन में दोहरा रहा था की "शराफत छोड़ दी मैंने" :)
मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे
के मैं बड़ा होकर आईपीएस बनूंगा :)
तो ये करूंगा वो करूंगा
इन लोगों से बदला लूंगा
फिर कोई मेरे साथ ऐसा कभी नहीं कर पायेगा
और ना जाने कितनी तरह की बातें :)

" ये चिंगारी मन में जली तो थी पर उस तरह से नहीं जली जैसे-

जब गाँधी जी को साउथ अफ्रीका में 
"काला हिंदुस्तानी" 
कह कर फर्स्ट क्लास की डब्बे से बाहर फेंका गया था 
तो उनके मन में जली थी
तब गाँधी जी ने भारत से ही नहीं बल्कि पूरे विश्व से ही औपनिवेशिक शक्तियों को उखाड़ फेंकने का मात्र पूरे विश्व को दे दिया था 
या फिर
तुलसीदास जी के मन में जली ,जब किसी ने उन्हें 
"बीवी के मोह में पड़ा नाकारा व्यक्ति" 
कहा तो "रामचरितमानस" लिखकर वो महृषि तुलसीदास बन गए "

काश मेरे अंदर भी वो आग उस तीव्रता से जलती रहती तो
आज आपका भाई भी कोई आईएएस /आईपीएस अफसर होता :)

ये तो हुयी मज़ाक की बात
पर सच तो ये है की आज भी इस तरह में वाक्यात हमारे जीवन में लगातार हो रहें हैं

"हमारे बैट आज भी छिन रहे हैं"

जहाँ कोई जालसाज़ व्यक्ति/कम्पनियाँ  हमारे पैसे मार रहीं है
साइबर फ्रॉड हो रहे हैं
हमारे अपने हमें धोखा दे रहा है
और हम लाचार हैं
हमारे देश में सिस्टम इतना धीमा,कमज़ोर है की

" बरसों बाद जब न्याय मिलता भी है तो वो अन्याय ही हो जाता है "

तो क्या करें
बहुत सोचा तो मुझे तो बस इतना ही समझ आया की हे प्रभु

"मुझे शक्ति देना की मैं अपने और अपनों के साथ हुए बुरे को बदल कर फिर सही कर सकूँ
और धैर्य देना के मैं सहन कर पाऊँ ,जिसे मैं ना बदल सकूँ
और इतनी समझ भी देना की 
मैं फ़र्क़ कर पाऊं के मैं क्या बदल सकता हूँ और क्या नहीं "

और क्या रास्ता है
धैर्य तो करना ही पडेगा
क्युकी अगर कुत्ता आपको काट के भाग गया तो
आप तो उसे काटने के लिए उसके पीछे भाग नहीं सकते ना :)

तो दोस्तों जीवन में सतर्क पर मस्त रहिये
स्वस्थ रहिये

"और अपने "शराफत वाले बैट" को संभाल कर रखिये , 
  खुद बचिए और अपनों को भी बचाइए "

कृपया अपनी प्रार्थना में मुझे भी याद रखिये
मुझे बहुत जरुरत है :)

#bachpan ,#बचपन , manojgupta0707.blogspot.com
Writer- Manoj Gupta


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