कलकत्ता आने के बाद तो अब "मारवाड़ी मेंशन " ही रज्जन का घर भी था और ऑफिस भी
उस कमरा no -44 के अगले हिस्से को उसने अपना ऑफिस बना लिया था
और पीछे वाले हिस्से में उसकी छोटी से सोने की जगह
और सामान रखने को एक पुरानी अलमारी थी
सुमेर के पिता श्री धर्मचंद जैन जी रज्जन के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए
जैन साहब कलकत्ता के रसूखदार व्यक्ति थे
तो उनकी सहायता से रज्जन को रूस या कहें सोवियत संघ की एक पत्रिका "सोवियत नारी" की कलकत्ता की डिस्ट्रीब्यूशन एजेंसी मिल गयी
(रूस से छपकर आनेवाली ये पत्रिका 1945 से 1991 तक एक विश्वप्रसिद्ध पारिवारिक पत्रिका थी,
उस जमाने में भारतीय पत्रिकायें उतनी स्तरीय नहीं थीँ तो "सोवियत नारी" पत्रिका अपनी बेहतरीन पेपर क्वालिटी और अच्छे रूसी लेखकों की कहानियों और लेखों से सजी होती थी
पर बाद में 1991 में जब रूस बिखर गया तो सब बदल गया और ये पत्रिका भी बंद हो गयी )
भारत ने आज़ादी के बाद से ही समाजवादी राह अपनाई थी
रूस तब विश्व में समाजवाद की धूरी था
उस समय बंगाल में या कहे पूरे भारत में ही सोवियत संघ या रूस का बड़ा प्रभाव था
भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू जी का देहांत अभी कुछ महीने पहले ही मई 1964 में हुआ ही था
अब शास्त्री जी भारत के प्रधानमंत्री थे
पर भारत में समाजवाद का प्रचार और प्रसार वैसा ही था
रज्जन का काम इस पत्रिका "सोवियत नारी " के नए वार्षिक,त्री-वार्षिक मेंबर बनाना था
जिस पर उसको कमीशन मिलता था
इस काम के लिए घर-घर जाकर दरवाज़े की बेल बजाकर लोगों को पत्रिका का ग्राहक बनाना होता था
काम मुश्किल था
क्युकी एक बांग्लाभाषी प्रदेश में एक हिन्दीभाषी का इस तरह का काम करना
जिसमे लोगों से संवाद करके उनको कुछ खरीदने के लिए प्रोत्साहित करना होता है
मुश्किल तो होना ही था
पर रज्जन ने न केवल अच्छा काम किया
बल्कि काम इतना बढ़ा लिया की 4 और लोग भी अब रज्जन के लिए ऑफिस में काम करते थे
उसकी परफॉरमेंस इतनी अच्छी थी की वो "सोवियत नारी" पत्रिका के भारत के सबसे बेहतरीन 100 डिस्ट्रीब्यूटर में चुना गया
और इनाम स्वरुप रज्जन को "रूस" घूमने का मौक़ा मिला
एक छोटे से गांव से आये 22-23 वर्षीय युवक के लिए तो ये सपने सा अनुभव था
कलकत्ता में कुछ सेटल होते ही रज्जन ने २ काम किये
गांव से छोटे भाई केशव को पढ़ने के लिए अपने पास ही कलकत्ता बुला भेजा
और रहने के लिए एक बेहतर जगह ढूंढ़नी शुरू की
किसी से पता लगा की पास की ही एक कॉलोनी में
एक घर की पहली मंजिल पर २ कमरों का सेट खाली है
किराया तो कुछ ज्यादा था
पर गांव से छोटा भाई केशव और अम्माँ आनेवाले थे
तो रज्जन ने घर लेना पड़ा
मकान मालिक नीचे के तल्ले पर रहते थे
और ऊपर के तल्ले पर जाने के लिए आँगन के दायीं और से सीढ़ियां जाती थी
(कलकत्ता में फ्लोर को तल्ला कहते हैं :) )
वो एक उच्च कुल बंगाली ब्राह्मण परिवार का घर था
घर में सिर्फ तीन प्राणी थे
सान्याल जी ,उनकी बेटी "शुचित्रा " और शुचित्रा की पीशी यानि बुआ ,मौशमी
शुचित्रा की माँ का देहांत शुचित्रा के बचपन में ही हो गया था
शुचित्रा की पीशी मौशमी जी ने विवाह नहीं किया था ,
इसलिए वो अपने भाई सान्याल जी के साथ ही रहती थी
सान्याल जी और उनकी बहन मौशमी जी दोनों ही कलकत्ता यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे
शुचित्रा एक बहुत ही खूबसूरत लड़की थी
वो कॉलेज में पढ़ती थी
(बात को मज़ाक में ना लेना पर "जोश" मूवी देख के आने के बाद रज्जन ने स्वयं मुझे बताया था की
शुचित्रा बिलकुल ऐश्वर्या राय जैसी दिखती थी :) १००% सच में :) )
शुचित्रा रविंद्र संगीत सीखती थी और अच्छा गाती थी
(बंगाल में एक ख़ास बात ये है की माँ बाप अपने बच्चो को पढ़ाई के साथ-साथ कोई भी अन्य कला जैसे की कोई वाद्य बजाना,गाना,नृत्य ,साहित्य पढ़ने और लिखने के लिए बहुत प्रोत्साहित करते है ,इसलिए आज भी आप देखिये की किसी भी और राज्य के मुकाबले ज्यादा कलाकार बंगाल से आते हैं )
शुचित्रा अक्सर सुबह के वक़्त आँगन में ही रविंद्र संगीत का रियाज़ करती थी
और रज्जन ऊपर खड़ा उसे देर तक निहारता रहता
अब रज्जन की हर सुबह इस रूहानी संगीत के साथ होती थी
और ना जाने कब और कैसे
रज्जन और शुचित्रा एक दूसरे से प्रेम करने लगे
इधर केशव और अम्माँ कलकत्ता आ गए थे
अम्माँ के आने से रज्जन को खाने का बहुत आराम हो गया था
वरना तो वो अक्सर खाना होटल में ही खाता था
(हां वैसे कभी-कभी शुचित्रा भी ,अपनी माँ से छुपाकर रज्जन को माँछ-भात खिलाती थी )
(माँछ-भात,मतलब मछली और चावल )
(यहाँ मैं आपको ये भी बता दूँ की शाकाहार और मांसाहार का किसी धर्म या सम्प्रदाय से कोई लेना-देना नहीं होता
जो भी स्थान समुन्द्र के नज़दीक होते हैं
वहां हर धर्म और जाति के लोग मछली खाते है ,
मछली उनके लिए ऐसे होती है जैसे उत्तर भारतियों के लिए आलू :) )
रज्जन ने केशव का दाखिला कलकत्ता के ही एक अच्छे स्कूल में करा दिया
केशव ने पढ़ाई में मन लगाने की
कलकत्ता में दोस्त बनाने की बहुत कोशिश की
पर अलग भाषा,अलग खान-पान ,अलग रहन-सहन
उसका मन यहाँ लग नहीं रहा था
वो वापिस गांव जाना चाहता था
पर भैया रज्जन से ये कहने की केशव की हिम्मत नहीं हो रही थी
उधर अम्माँ ने आते ही रज्जन और शुचित्रा का प्रेम भाँप लिया था
और रज्जन के लाला को इसकी खबर पत्र से दे दी
"आखिर एक मछली खाने वाले बंगाली परिवार की लड़की कैसे उनके लड़के के साथ .."
अब रज्जन के लिए चीज़े एक बार फिर बनते-बनते खराब होने लगी थी
पत्र मिलते ही रज्जन के लाला (पिता) कलकत्ता आ गए
बाप-बेटे में बहुत झगड़ा हुआ
पर रज्जन नहीं माना
तो लाला ,अम्माँ और केशव को अपने साथ गांव वापिस लिवा ले गए
और इस सारे प्रकरण की खींचतान में रज्जन और शुचित्रा के प्रेम की बात
शुचित्रा के पिता उच्च कुल ब्राह्मण देवता सान्याल जी को भी हो गयी
उन्होंने रज्जन को घर खाली करने को बोल दिया
और रज्जन ने दिल पे पथ्थर रखकर वो घर खाली कर दिया
और फिरसे अपने "मारवाड़ी मेंशन" वाले ऑफिस में ही रहने पहुंच गया
पर शुचित्रा और रज्जन अपने प्रेम पर अडिग थे
उन्होंने सोचा की "वक़्त आने पे हम वही करेंगे जो हमें करना है"
पर समय को तो अभी रज्जन की बहुत सी परीक्षाएं लेनी थी
ये सन 1967 का समय था
बंगाल के दार्जिलिंग के छोटे से एक गांव "नक्सलबाड़ी " से नक्सल आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी
इस आंदोलन के पहले कुछ नक्सली नेता थे चारु मजूमदार,कानू सान्याल और जंगल संथाल
ये आंदोलन गरीब खेतिहर मज़दूर/किसान बनाम अमीर जमींदारों के बीच एक संघर्ष से शुरू हुआ था
खेतिहर मज़दूर चाहते थे की वो जिस जमीन पर दशकों से खेती करते रहें है
अब वो उस जमीन के मालिक बना दिए जाए
अब जमींदार ये कैसे होने देते
तो जमींदार पुलिस, CRPF और प्रशासन की मदद से
इस आंदोलन को ताकत से कुचलना चाहते थे
उस वक़्त समाजवादी मार्क्सवादी लोगों ने किसानों का साथ दिया
उनकी कोशिश थी की ये आंदोलन शांतिपूर्ण रहे
वो गांव के लेवल पे ही अपनी अदालतें लगाते थे
और विवादों को निपटाने की कोशिश करते थे
पर एक ओर बर्षों से शासन का शिकार हो रहे गरीब किसान थे जो
अब और बर्दाश्त करने को बिलकुल तैयार नहीं थे
और दूसरी ओर जमींदार थे जो अपने पैसे,बाहुबल और
प्रशासन से नजदीकी की वजह से पीछे हटने को तैयार नहीं थे
धीरे-धीरे ये आंदोलन एक खूनी संघर्ष में बदलने लगा
कहते हैं की ये आंदोलन इतना हिंसक हो गया था की
साढ़े छह फ़ीट के नक्सल नेता जंगल संथाल ने
एक जमींदार का सिर काटकर ,
उस कटे हुए सिर से फुटबाल खेला था :(
आगे बढ़ते -बढ़ते, ये आंदोलन अब गावों से निकलकर कलकत्ता शहर में सर उठाने लगा था
कोलकाता शहर का एक भी कॉलेज इससे अछूता नहीं रहा
छात्र लगातार इस आंदोलन से जुड़ रहे थे
अब ये आंदोलन बाहरी लोगों और क्षेत्रीय लोगों के बीच के संघर्ष में भी बदलने लगा
नक्सली विचारधारकों का सोचना था की इन बाहरी लोगों (प्रवासी) ने यहाँ आकर
उनके हक़ की नौकरियों ,संसाधनों और काम की सम्भावनाओ पर कब्ज़ा कर लिया है,
अब इनको वापिस जाना होगा
और पूरा कलकत्ता शहर जलने लगा था
शहर प्रदर्शन,जलूस और तोड़फोड़ हो रही थी
रज्जन जैसे बाहरी या कहें उत्तर भारतीयों या कहे प्रवासी लोगों पर
आये दिन जानलेवा हमले हो रहे थे
और एक मनहूस रात ये आग "मारवाड़ी मेंशन" तक भी आ पहुंची
हथियारों से लैस एक भीड़ "माड़वाड़ी मेंशन"में घुस आयी
वहां सारे बाहरी या कहे प्रवासी लोगों के ही ऑफिस थे
सारे ऑफिस लूटे गए
लोगों को बुरी तरह से मारा गया
रोज की तरह उस रात भी रज्जन अपने ऑफिस में ही सोया हुआ था
रज्जन के ऑफिस को आग लगा दी गयी
उसे बहुत बुरी तरह पीटा गया
गन-पॉइंट पे सारे बाहरियों को खाली हाथ, बिना किसी सामान के
जानवरों की तरह एक लॉरी में भरकर हावड़ा स्टेशन पे फेंक दिया गया
सन्देश साफ़ था
"हमें इस शहर में प्रवासी नहीं चाहिये
वापिस जाओ "
अब फिर से वही "कालका मेल" थी
जब रज्जन कोलकाता आया था तो उसे
उसे ये ट्रैन उसके सपनों की की तरह खूबसूरत और इंद्रधनुषी रंगों से भरपूर लगी थी
पर आज
आज वो ट्रैन रज्जन को बिलकुल बदरंग और उदास लग रही थी
आज रज्जन फिरसे खाली हाथ था,
जैसा वो अपने इस सपनों के शहर "कलकत्ता" में आया था
वो सबकुछ जो वो अपने गांव से लेकर इस शहर में लेकर आया था
और जो 3 साल की कड़ी मेहनत के बाद उसने कलकत्ता में कमाया था
रुपया,पैसा,एक छोटा सा कारोबार, प्यार...
आज वो सबकुछ यहीं छोड़कर
उसे फिरसे अपने गांव वापिस जाना था
आखिरकार "कालका मेल" ने सीटी दे दी
और धीरे-धीरे प्लेटफार्म के बाहर निकल रही थी
रज्जन ने आंसू भरी निगाहों से एक आखिरी बार निरंतर दूर होते कलकत्ता शहर को निहारा
और फिर अपने साथ बैठे लोगों पर निगाह दौड़ाई
इस बार भी उसके साथ बहुत सारे रज्जन थे
उदास आँखे और खाली हाथ
दिल में भावनाओं के ना जाने कितने तूफ़ान लिए
वो सारे प्रवासी रज्जन फिर अपने देस वापिस जा रहे थे।
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(दोस्तों प्रवासी कहानी का भाग-4 आने वाले कुछ दिनों में )
उस कमरा no -44 के अगले हिस्से को उसने अपना ऑफिस बना लिया था
और पीछे वाले हिस्से में उसकी छोटी से सोने की जगह
और सामान रखने को एक पुरानी अलमारी थी
सुमेर के पिता श्री धर्मचंद जैन जी रज्जन के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए
जैन साहब कलकत्ता के रसूखदार व्यक्ति थे
तो उनकी सहायता से रज्जन को रूस या कहें सोवियत संघ की एक पत्रिका "सोवियत नारी" की कलकत्ता की डिस्ट्रीब्यूशन एजेंसी मिल गयी
(रूस से छपकर आनेवाली ये पत्रिका 1945 से 1991 तक एक विश्वप्रसिद्ध पारिवारिक पत्रिका थी,
उस जमाने में भारतीय पत्रिकायें उतनी स्तरीय नहीं थीँ तो "सोवियत नारी" पत्रिका अपनी बेहतरीन पेपर क्वालिटी और अच्छे रूसी लेखकों की कहानियों और लेखों से सजी होती थी
पर बाद में 1991 में जब रूस बिखर गया तो सब बदल गया और ये पत्रिका भी बंद हो गयी )
भारत ने आज़ादी के बाद से ही समाजवादी राह अपनाई थी
रूस तब विश्व में समाजवाद की धूरी था
उस समय बंगाल में या कहे पूरे भारत में ही सोवियत संघ या रूस का बड़ा प्रभाव था
भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू जी का देहांत अभी कुछ महीने पहले ही मई 1964 में हुआ ही था
अब शास्त्री जी भारत के प्रधानमंत्री थे
पर भारत में समाजवाद का प्रचार और प्रसार वैसा ही था
रज्जन का काम इस पत्रिका "सोवियत नारी " के नए वार्षिक,त्री-वार्षिक मेंबर बनाना था
जिस पर उसको कमीशन मिलता था
इस काम के लिए घर-घर जाकर दरवाज़े की बेल बजाकर लोगों को पत्रिका का ग्राहक बनाना होता था
काम मुश्किल था
क्युकी एक बांग्लाभाषी प्रदेश में एक हिन्दीभाषी का इस तरह का काम करना
जिसमे लोगों से संवाद करके उनको कुछ खरीदने के लिए प्रोत्साहित करना होता है
मुश्किल तो होना ही था
पर रज्जन ने न केवल अच्छा काम किया
बल्कि काम इतना बढ़ा लिया की 4 और लोग भी अब रज्जन के लिए ऑफिस में काम करते थे
उसकी परफॉरमेंस इतनी अच्छी थी की वो "सोवियत नारी" पत्रिका के भारत के सबसे बेहतरीन 100 डिस्ट्रीब्यूटर में चुना गया
और इनाम स्वरुप रज्जन को "रूस" घूमने का मौक़ा मिला
एक छोटे से गांव से आये 22-23 वर्षीय युवक के लिए तो ये सपने सा अनुभव था
कलकत्ता में कुछ सेटल होते ही रज्जन ने २ काम किये
गांव से छोटे भाई केशव को पढ़ने के लिए अपने पास ही कलकत्ता बुला भेजा
और रहने के लिए एक बेहतर जगह ढूंढ़नी शुरू की
किसी से पता लगा की पास की ही एक कॉलोनी में
एक घर की पहली मंजिल पर २ कमरों का सेट खाली है
किराया तो कुछ ज्यादा था
पर गांव से छोटा भाई केशव और अम्माँ आनेवाले थे
तो रज्जन ने घर लेना पड़ा
मकान मालिक नीचे के तल्ले पर रहते थे
और ऊपर के तल्ले पर जाने के लिए आँगन के दायीं और से सीढ़ियां जाती थी
(कलकत्ता में फ्लोर को तल्ला कहते हैं :) )
वो एक उच्च कुल बंगाली ब्राह्मण परिवार का घर था
घर में सिर्फ तीन प्राणी थे
सान्याल जी ,उनकी बेटी "शुचित्रा " और शुचित्रा की पीशी यानि बुआ ,मौशमी
शुचित्रा की माँ का देहांत शुचित्रा के बचपन में ही हो गया था
शुचित्रा की पीशी मौशमी जी ने विवाह नहीं किया था ,
इसलिए वो अपने भाई सान्याल जी के साथ ही रहती थी
सान्याल जी और उनकी बहन मौशमी जी दोनों ही कलकत्ता यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे
शुचित्रा एक बहुत ही खूबसूरत लड़की थी
वो कॉलेज में पढ़ती थी
(बात को मज़ाक में ना लेना पर "जोश" मूवी देख के आने के बाद रज्जन ने स्वयं मुझे बताया था की
शुचित्रा बिलकुल ऐश्वर्या राय जैसी दिखती थी :) १००% सच में :) )
शुचित्रा रविंद्र संगीत सीखती थी और अच्छा गाती थी
(बंगाल में एक ख़ास बात ये है की माँ बाप अपने बच्चो को पढ़ाई के साथ-साथ कोई भी अन्य कला जैसे की कोई वाद्य बजाना,गाना,नृत्य ,साहित्य पढ़ने और लिखने के लिए बहुत प्रोत्साहित करते है ,इसलिए आज भी आप देखिये की किसी भी और राज्य के मुकाबले ज्यादा कलाकार बंगाल से आते हैं )
शुचित्रा अक्सर सुबह के वक़्त आँगन में ही रविंद्र संगीत का रियाज़ करती थी
और रज्जन ऊपर खड़ा उसे देर तक निहारता रहता
अब रज्जन की हर सुबह इस रूहानी संगीत के साथ होती थी
और ना जाने कब और कैसे
रज्जन और शुचित्रा एक दूसरे से प्रेम करने लगे
इधर केशव और अम्माँ कलकत्ता आ गए थे
अम्माँ के आने से रज्जन को खाने का बहुत आराम हो गया था
वरना तो वो अक्सर खाना होटल में ही खाता था
(हां वैसे कभी-कभी शुचित्रा भी ,अपनी माँ से छुपाकर रज्जन को माँछ-भात खिलाती थी )
(माँछ-भात,मतलब मछली और चावल )
(यहाँ मैं आपको ये भी बता दूँ की शाकाहार और मांसाहार का किसी धर्म या सम्प्रदाय से कोई लेना-देना नहीं होता
जो भी स्थान समुन्द्र के नज़दीक होते हैं
वहां हर धर्म और जाति के लोग मछली खाते है ,
मछली उनके लिए ऐसे होती है जैसे उत्तर भारतियों के लिए आलू :) )
रज्जन ने केशव का दाखिला कलकत्ता के ही एक अच्छे स्कूल में करा दिया
केशव ने पढ़ाई में मन लगाने की
कलकत्ता में दोस्त बनाने की बहुत कोशिश की
पर अलग भाषा,अलग खान-पान ,अलग रहन-सहन
उसका मन यहाँ लग नहीं रहा था
वो वापिस गांव जाना चाहता था
पर भैया रज्जन से ये कहने की केशव की हिम्मत नहीं हो रही थी
उधर अम्माँ ने आते ही रज्जन और शुचित्रा का प्रेम भाँप लिया था
और रज्जन के लाला को इसकी खबर पत्र से दे दी
"आखिर एक मछली खाने वाले बंगाली परिवार की लड़की कैसे उनके लड़के के साथ .."
अब रज्जन के लिए चीज़े एक बार फिर बनते-बनते खराब होने लगी थी
पत्र मिलते ही रज्जन के लाला (पिता) कलकत्ता आ गए
बाप-बेटे में बहुत झगड़ा हुआ
पर रज्जन नहीं माना
तो लाला ,अम्माँ और केशव को अपने साथ गांव वापिस लिवा ले गए
और इस सारे प्रकरण की खींचतान में रज्जन और शुचित्रा के प्रेम की बात
शुचित्रा के पिता उच्च कुल ब्राह्मण देवता सान्याल जी को भी हो गयी
उन्होंने रज्जन को घर खाली करने को बोल दिया
और रज्जन ने दिल पे पथ्थर रखकर वो घर खाली कर दिया
और फिरसे अपने "मारवाड़ी मेंशन" वाले ऑफिस में ही रहने पहुंच गया
पर शुचित्रा और रज्जन अपने प्रेम पर अडिग थे
उन्होंने सोचा की "वक़्त आने पे हम वही करेंगे जो हमें करना है"
पर समय को तो अभी रज्जन की बहुत सी परीक्षाएं लेनी थी
ये सन 1967 का समय था
बंगाल के दार्जिलिंग के छोटे से एक गांव "नक्सलबाड़ी " से नक्सल आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी
इस आंदोलन के पहले कुछ नक्सली नेता थे चारु मजूमदार,कानू सान्याल और जंगल संथाल
ये आंदोलन गरीब खेतिहर मज़दूर/किसान बनाम अमीर जमींदारों के बीच एक संघर्ष से शुरू हुआ था
खेतिहर मज़दूर चाहते थे की वो जिस जमीन पर दशकों से खेती करते रहें है
अब वो उस जमीन के मालिक बना दिए जाए
अब जमींदार ये कैसे होने देते
तो जमींदार पुलिस, CRPF और प्रशासन की मदद से
इस आंदोलन को ताकत से कुचलना चाहते थे
उस वक़्त समाजवादी मार्क्सवादी लोगों ने किसानों का साथ दिया
उनकी कोशिश थी की ये आंदोलन शांतिपूर्ण रहे
वो गांव के लेवल पे ही अपनी अदालतें लगाते थे
और विवादों को निपटाने की कोशिश करते थे
पर एक ओर बर्षों से शासन का शिकार हो रहे गरीब किसान थे जो
अब और बर्दाश्त करने को बिलकुल तैयार नहीं थे
और दूसरी ओर जमींदार थे जो अपने पैसे,बाहुबल और
प्रशासन से नजदीकी की वजह से पीछे हटने को तैयार नहीं थे
धीरे-धीरे ये आंदोलन एक खूनी संघर्ष में बदलने लगा
कहते हैं की ये आंदोलन इतना हिंसक हो गया था की
साढ़े छह फ़ीट के नक्सल नेता जंगल संथाल ने
एक जमींदार का सिर काटकर ,
उस कटे हुए सिर से फुटबाल खेला था :(
आगे बढ़ते -बढ़ते, ये आंदोलन अब गावों से निकलकर कलकत्ता शहर में सर उठाने लगा था
कोलकाता शहर का एक भी कॉलेज इससे अछूता नहीं रहा
छात्र लगातार इस आंदोलन से जुड़ रहे थे
अब ये आंदोलन बाहरी लोगों और क्षेत्रीय लोगों के बीच के संघर्ष में भी बदलने लगा
नक्सली विचारधारकों का सोचना था की इन बाहरी लोगों (प्रवासी) ने यहाँ आकर
उनके हक़ की नौकरियों ,संसाधनों और काम की सम्भावनाओ पर कब्ज़ा कर लिया है,
अब इनको वापिस जाना होगा
और पूरा कलकत्ता शहर जलने लगा था
शहर प्रदर्शन,जलूस और तोड़फोड़ हो रही थी
रज्जन जैसे बाहरी या कहें उत्तर भारतीयों या कहे प्रवासी लोगों पर
आये दिन जानलेवा हमले हो रहे थे
और एक मनहूस रात ये आग "मारवाड़ी मेंशन" तक भी आ पहुंची
हथियारों से लैस एक भीड़ "माड़वाड़ी मेंशन"में घुस आयी
वहां सारे बाहरी या कहे प्रवासी लोगों के ही ऑफिस थे
सारे ऑफिस लूटे गए
लोगों को बुरी तरह से मारा गया
रोज की तरह उस रात भी रज्जन अपने ऑफिस में ही सोया हुआ था
रज्जन के ऑफिस को आग लगा दी गयी
उसे बहुत बुरी तरह पीटा गया
गन-पॉइंट पे सारे बाहरियों को खाली हाथ, बिना किसी सामान के
जानवरों की तरह एक लॉरी में भरकर हावड़ा स्टेशन पे फेंक दिया गया
सन्देश साफ़ था
"हमें इस शहर में प्रवासी नहीं चाहिये
वापिस जाओ "
अब फिर से वही "कालका मेल" थी
जब रज्जन कोलकाता आया था तो उसे
उसे ये ट्रैन उसके सपनों की की तरह खूबसूरत और इंद्रधनुषी रंगों से भरपूर लगी थी
पर आज
आज वो ट्रैन रज्जन को बिलकुल बदरंग और उदास लग रही थी
आज रज्जन फिरसे खाली हाथ था,
जैसा वो अपने इस सपनों के शहर "कलकत्ता" में आया था
वो सबकुछ जो वो अपने गांव से लेकर इस शहर में लेकर आया था
और जो 3 साल की कड़ी मेहनत के बाद उसने कलकत्ता में कमाया था
रुपया,पैसा,एक छोटा सा कारोबार, प्यार...
आज वो सबकुछ यहीं छोड़कर
उसे फिरसे अपने गांव वापिस जाना था
आखिरकार "कालका मेल" ने सीटी दे दी
और धीरे-धीरे प्लेटफार्म के बाहर निकल रही थी
रज्जन ने आंसू भरी निगाहों से एक आखिरी बार निरंतर दूर होते कलकत्ता शहर को निहारा
और फिर अपने साथ बैठे लोगों पर निगाह दौड़ाई
इस बार भी उसके साथ बहुत सारे रज्जन थे
उदास आँखे और खाली हाथ
दिल में भावनाओं के ना जाने कितने तूफ़ान लिए
वो सारे प्रवासी रज्जन फिर अपने देस वापिस जा रहे थे।
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(दोस्तों प्रवासी कहानी का भाग-4 आने वाले कुछ दिनों में )
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