सारी फुटवियर मार्किट में चर्चा गर्म थी
"बंगाल फुटवियर" बंद हो गयी
( ये 1987 की बात है )
लोग हैरान थे
रज्जन की कोई देनदारी तो थी नहीं क्युकी वो
हमेशा एडवांस पेमेंट या कैश में ही सारा रॉ मैटेरियल्स खरीदता था
सो फैक्ट्री वर्कर्स का हिसाब चुकता कर रज्जन अपने गांव आ गया
उसने छोटे भाई केशव और लाला को बताया की उसने फैक्ट्री बंद कर दी है
और अब वो गांव वापस आ रहा है
अब यहीं रहेगा
छोटा भाई केशव तो बड़े भाई का लिहाज़ कर चुप हो गया पर
लाला ने रज्जन को बहुत गालियां दी
लाला बोले-
"तू कम से कम मुझे बताता तो के तू क्या करने वाला है
तुझे क्या लगता है के तू यहाँ गांव में रह लेगा
तू तो शायद रह भी ले ,तो क्या तेरे बच्चे यहाँ रह पाएंगे "
"और ये जो तू गांव में आकर हमेशा अपनी कमाई के झूठे-सच्चे किस्से बढ़ा-चढ़ा के लोगो को सुनाता रहता है
जो भी कोई गांव से दिल्ली तेरे घर जाता है ,वो जो माँगता है , तू दे देता है
गांव में तेरी इतनी हवा बनी हुयी है के पूरे क्षेत्र के बदमाशों की तुझपे नज़र है
तू गांव आकर रहेगा, अबे उठा ले जाएंगे तुझे
हमारी जान और जोखिम में डालेगा तू "
रज्जन तो जैसे सांतवे आसमान से सीधा धरती पे गिरा
ऐसा कुछ तो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था
उसका अपना गांव ....
क्या उसका अपना कमाया हुआ पैसा ही उसके लिए जहर बन गया था
(ये वो 1987 का दौर था जब उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में काफी क्राइम था )
भरे मन से रज्जन दिल्ली वापस आया
उसने क्या सोचा था और क्या हो गया था
कई समस्याएँ और भी खड़ी हो गयी थी
फैक्ट्री की लेबर ने कोर्ट केस कर दिया था
उनका कहना था की उन्हें अचानक निकाला गया है
उन्हें और भी पैसा मिलना चाहिए
बाज़ार जिन-जिन लोगों का जो भी पैसा उसने देना था
उसने सारा चुकता दे दिया था
पर जिन से उसने लेना था उनमे से काफी दुकानदारों ने रज्जन का पैसा रोक लिया था
तब के जूता दुकानदारों की आदत थी
" माल देते रहो तो ,पिछला पैसा लेते रहो
माल देना बंद तो ,पिछला पैसा ख़तम "
इधर रज्जन फैक्ट्री बंद कर चुका था और
उधर उसका गांव वापस जाने का सपना टूट गया था
बड़ी विकट परिस्तिथी थी
अब उसने सोचा की अब वो अपने पैसे को कहीं इन्वेस्ट कर देगा
और दिल्ली में ही रह कर गांव आता-जाता रहेगा
रज्जन इस समय काफी अकेला पड़ गया था
बच्चे छोटे थे
और वो खुद ,अपना मन किसी के सामने ठीक से खोल नहीं पा रहा था
(समाज में अच्छे लोगों के पास अक्सर किसी दूसरे के लिए समय कम ही होता है
पर कुछ ऐसे धोखेबाज़,चाटुकार लोग होते है जो हमेशा किसी को ठगने की फ़िराक में रहते हैं,
और इनके पास तो समय ही समय होता है शिकार फाँसने के लिए )
ऐसे ही कुछ लोग रज्जन को इन दिनों मिल गए
रज्जन को अपना बिखरा हुआ पैसा इन्वेस्ट करना था
और ऐसे ठग लोगों के पास तो ऐसी स्कीम्स हमेशा होती हैं ,
जो दिखती कुछ और हैं और होती कुछ और हैं
कई जगह रज्जन का पैसा डूबा
उसके साथ खूब ठगी हुयी
ऐसे ठग अलग-अलग नामों से लगातार उसे मिलते रहे
कहीं कोई फ्रॉड शेयर ब्रॉकर ,
तो कही पॉपुलर के पेड़ों की फ़र्ज़ी स्कीम ,
और कहीं कच्ची कॉलोनियों में नकली कागज़ो वाले प्लॉट
और फिर उन जमीनों पे होते हुए कब्जे
उसकी पूरी ज़िंदगी की खून-पसीने की कमाई का करीब आधा पैसा इन ठगों के द्वारा बेदर्दी से लूटा गया
और जो तनाव और मानसिक परेशानी हुयी वो अलग से
वो तो अच्छा हुआ की 1988 के एक अच्छे दिन
उसने एक रिहायशी प्लाट पीतमपुरा में खरीदा
और एक इंदरलोक में
जिसमे उसका बचा हुआ पैसा वहां इन्वेस्ट हो गया
( यही दो इन्वेस्टमेंट उसके आने वाले जीवन के पिलर ऑफ़ स्ट्रेंथ बने )
धीरे-धीरे करके चार साल में रज्जन ने अपना पीतमपुरा का घर बना लिया
अब एक नयी समस्या थी
1992 में उसका नया घर बनकर तैयार था
पर सावी और बच्चे त्रिनगर छोड़ना ही नहीं चाहते थे
क्युकी उनके सारे रिश्तेदार और दोस्त तब तक त्रिनगर में ही रहते थे
(हालाँकि बाद के वर्षों में सारे रिश्तेदार एक-एक करके पीतमपुरा रहने आ गए ,
रज्जन काफी दूरदर्शी था तो सबसे पहले ही निकल आया था )
बदलाव हमेशा मुश्किल होता है
सावी और बच्चे इसके लिए तैयार ना थे
( इसी वजह से 2 बार तो ऐसा भी हुआ के रज्जन ने गुस्से में नया घर बेच देना चाहा )
रज्जन हमेशा से जिद्दी, दृढ़ निश्चयी और दूरदर्शी था ,
उसको पता था की त्रिनगर अब एक बड़ा इंडस्ट्रियल एरिया बन गया है ,
हर घर में फैक्ट्री है
जिसका धुँआ और कलर का पोलुशन स्वास्थ्य के लिए बहुत खराब है
तो अब यहाँ रिहाइश रखना ठीक नहीं है
एक सुबह उसने एक खाली ट्रक मंगवाया
मज़दूर घर का सामान लोड करने लगे
अब सावी और बच्चे मज़बूर हो गए थे
उन्हें पीतमपुरा आना ही पड़ा
उस दिन तक पीतमपुरा के उस घर में ना लाइट लगी थी
ना पानी का कनेक्शन आया था
5 -6 दिन बाद ये सब लगा ,
तब तक सारा परिवार उस घर में बगैर बिजली-पानी ही रहा
ऐसे तुरंत फैसले लेता था रज्जन :)
(रज्जन के उस तुरंत लिए फैसले पर आज भी सारा घर खूब हँसता भी है और सराहता भी है :) )
पीतमपुरा आने के बाद रज्जन को कुछ बहुत अच्छे लोग मिले
जिनके पास समय भी था और दोस्ती में जिनका कोई स्वार्थ भी नहीं था
नरेंद्र जी उसमे से एक थे
रज्जन और नरेंद्र के शौक भी काफी एक जैसे थे
रोज़ सुबह पंजाबी बाग़ क्लब में स्विमिंग करना ,
रोज़ शाम को घर पर ही ताश खेलना,
खुलकर हँसी-मज़ाक करना ,
फल और ऑमलेट खाना :)
अब रज्जन पुरसुकून था
कुछ सकारात्मक ठहराव आ रहा था ,
जीवन में।
"बंगाल फुटवियर" बंद हो गयी
( ये 1987 की बात है )
लोग हैरान थे
रज्जन की कोई देनदारी तो थी नहीं क्युकी वो
हमेशा एडवांस पेमेंट या कैश में ही सारा रॉ मैटेरियल्स खरीदता था
सो फैक्ट्री वर्कर्स का हिसाब चुकता कर रज्जन अपने गांव आ गया
उसने छोटे भाई केशव और लाला को बताया की उसने फैक्ट्री बंद कर दी है
और अब वो गांव वापस आ रहा है
अब यहीं रहेगा
छोटा भाई केशव तो बड़े भाई का लिहाज़ कर चुप हो गया पर
लाला ने रज्जन को बहुत गालियां दी
लाला बोले-
"तू कम से कम मुझे बताता तो के तू क्या करने वाला है
तुझे क्या लगता है के तू यहाँ गांव में रह लेगा
तू तो शायद रह भी ले ,तो क्या तेरे बच्चे यहाँ रह पाएंगे "
"और ये जो तू गांव में आकर हमेशा अपनी कमाई के झूठे-सच्चे किस्से बढ़ा-चढ़ा के लोगो को सुनाता रहता है
जो भी कोई गांव से दिल्ली तेरे घर जाता है ,वो जो माँगता है , तू दे देता है
गांव में तेरी इतनी हवा बनी हुयी है के पूरे क्षेत्र के बदमाशों की तुझपे नज़र है
तू गांव आकर रहेगा, अबे उठा ले जाएंगे तुझे
हमारी जान और जोखिम में डालेगा तू "
रज्जन तो जैसे सांतवे आसमान से सीधा धरती पे गिरा
ऐसा कुछ तो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था
उसका अपना गांव ....
क्या उसका अपना कमाया हुआ पैसा ही उसके लिए जहर बन गया था
(ये वो 1987 का दौर था जब उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में काफी क्राइम था )
भरे मन से रज्जन दिल्ली वापस आया
उसने क्या सोचा था और क्या हो गया था
कई समस्याएँ और भी खड़ी हो गयी थी
फैक्ट्री की लेबर ने कोर्ट केस कर दिया था
उनका कहना था की उन्हें अचानक निकाला गया है
उन्हें और भी पैसा मिलना चाहिए
बाज़ार जिन-जिन लोगों का जो भी पैसा उसने देना था
उसने सारा चुकता दे दिया था
पर जिन से उसने लेना था उनमे से काफी दुकानदारों ने रज्जन का पैसा रोक लिया था
तब के जूता दुकानदारों की आदत थी
" माल देते रहो तो ,पिछला पैसा लेते रहो
माल देना बंद तो ,पिछला पैसा ख़तम "
इधर रज्जन फैक्ट्री बंद कर चुका था और
उधर उसका गांव वापस जाने का सपना टूट गया था
बड़ी विकट परिस्तिथी थी
अब उसने सोचा की अब वो अपने पैसे को कहीं इन्वेस्ट कर देगा
और दिल्ली में ही रह कर गांव आता-जाता रहेगा
रज्जन इस समय काफी अकेला पड़ गया था
बच्चे छोटे थे
और वो खुद ,अपना मन किसी के सामने ठीक से खोल नहीं पा रहा था
(समाज में अच्छे लोगों के पास अक्सर किसी दूसरे के लिए समय कम ही होता है
पर कुछ ऐसे धोखेबाज़,चाटुकार लोग होते है जो हमेशा किसी को ठगने की फ़िराक में रहते हैं,
और इनके पास तो समय ही समय होता है शिकार फाँसने के लिए )
ऐसे ही कुछ लोग रज्जन को इन दिनों मिल गए
रज्जन को अपना बिखरा हुआ पैसा इन्वेस्ट करना था
और ऐसे ठग लोगों के पास तो ऐसी स्कीम्स हमेशा होती हैं ,
जो दिखती कुछ और हैं और होती कुछ और हैं
कई जगह रज्जन का पैसा डूबा
उसके साथ खूब ठगी हुयी
ऐसे ठग अलग-अलग नामों से लगातार उसे मिलते रहे
कहीं कोई फ्रॉड शेयर ब्रॉकर ,
तो कही पॉपुलर के पेड़ों की फ़र्ज़ी स्कीम ,
और कहीं कच्ची कॉलोनियों में नकली कागज़ो वाले प्लॉट
और फिर उन जमीनों पे होते हुए कब्जे
उसकी पूरी ज़िंदगी की खून-पसीने की कमाई का करीब आधा पैसा इन ठगों के द्वारा बेदर्दी से लूटा गया
और जो तनाव और मानसिक परेशानी हुयी वो अलग से
वो तो अच्छा हुआ की 1988 के एक अच्छे दिन
उसने एक रिहायशी प्लाट पीतमपुरा में खरीदा
और एक इंदरलोक में
जिसमे उसका बचा हुआ पैसा वहां इन्वेस्ट हो गया
( यही दो इन्वेस्टमेंट उसके आने वाले जीवन के पिलर ऑफ़ स्ट्रेंथ बने )
धीरे-धीरे करके चार साल में रज्जन ने अपना पीतमपुरा का घर बना लिया
अब एक नयी समस्या थी
1992 में उसका नया घर बनकर तैयार था
पर सावी और बच्चे त्रिनगर छोड़ना ही नहीं चाहते थे
क्युकी उनके सारे रिश्तेदार और दोस्त तब तक त्रिनगर में ही रहते थे
(हालाँकि बाद के वर्षों में सारे रिश्तेदार एक-एक करके पीतमपुरा रहने आ गए ,
रज्जन काफी दूरदर्शी था तो सबसे पहले ही निकल आया था )
बदलाव हमेशा मुश्किल होता है
सावी और बच्चे इसके लिए तैयार ना थे
( इसी वजह से 2 बार तो ऐसा भी हुआ के रज्जन ने गुस्से में नया घर बेच देना चाहा )
रज्जन हमेशा से जिद्दी, दृढ़ निश्चयी और दूरदर्शी था ,
उसको पता था की त्रिनगर अब एक बड़ा इंडस्ट्रियल एरिया बन गया है ,
हर घर में फैक्ट्री है
जिसका धुँआ और कलर का पोलुशन स्वास्थ्य के लिए बहुत खराब है
तो अब यहाँ रिहाइश रखना ठीक नहीं है
एक सुबह उसने एक खाली ट्रक मंगवाया
मज़दूर घर का सामान लोड करने लगे
अब सावी और बच्चे मज़बूर हो गए थे
उन्हें पीतमपुरा आना ही पड़ा
उस दिन तक पीतमपुरा के उस घर में ना लाइट लगी थी
ना पानी का कनेक्शन आया था
5 -6 दिन बाद ये सब लगा ,
तब तक सारा परिवार उस घर में बगैर बिजली-पानी ही रहा
ऐसे तुरंत फैसले लेता था रज्जन :)
(रज्जन के उस तुरंत लिए फैसले पर आज भी सारा घर खूब हँसता भी है और सराहता भी है :) )
पीतमपुरा आने के बाद रज्जन को कुछ बहुत अच्छे लोग मिले
जिनके पास समय भी था और दोस्ती में जिनका कोई स्वार्थ भी नहीं था
नरेंद्र जी उसमे से एक थे
रज्जन और नरेंद्र के शौक भी काफी एक जैसे थे
रोज़ सुबह पंजाबी बाग़ क्लब में स्विमिंग करना ,
रोज़ शाम को घर पर ही ताश खेलना,
खुलकर हँसी-मज़ाक करना ,
फल और ऑमलेट खाना :)
अब रज्जन पुरसुकून था
कुछ सकारात्मक ठहराव आ रहा था ,
जीवन में।
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