दिल्ली आकर रज्जन और उसके बाकी तीनों पार्टनर
सब मिलकर नयी फैक्ट्री शुरू करने में जुट गए
वो एक प्लास्टिक दाना बनाने की फैक्ट्री थी
(ये 1973 की बात है ,उस समय बाटा और कई अन्य बड़ी कंपनियों के प्लास्टिक जूते तो आते ही थे ,पर गरीब ग्रामीण भारत के लिए जूते ज्यादातर त्रिनगर की स्थानीय जूता फैक्टरियों में ही बनते थे,
ये प्लास्टिक जूते सर्दी और बरसात दोनों में बहुत अच्छे रहते थे ,किसान पानी भरे खेत में यही जूते पहनते थे ,प्लास्टिक थी तो पानी में ये जूते खराब नहीं होते थे
शुरूआत में तो ये जूता दोनों पैरों का कॉमन होता था और साइज वैरायटी भी कम थी
मतलब लोग एक साइज ढीला या एक साइज टाइट जूता भी पहन लेते थे और किसी पैर में चाहे कोई भी जूता पहन लो,क्युकी सीधा-उल्टा जैसा कोई फ़र्क़ ही नहीं था :)
फिर जब ये जूते टूट जाते थे तो ग्रामीण भारत में लोग दूकानदार को टूटा हुआ जूता और कुछ पैसे देकर बदले में नया जूता ले लेते थे,ये टूटे हुए जूते इकठ्ठे करके फिरसे वापिस त्रिनगर दिल्ली प्लास्टिक दाना फैक्टरियों में आते थे,जहाँ उनकी मिटटी निकाली जाती,धोया जाता ,ग्राइंड किया जाता ,फिर कुछ केमिकल मिलाकर रीसायकल करके प्लास्टिक दाना बनाया जाता और फिर ये दाना ,जूता फैक्टरियों को बेच दिया जाता था,जहाँ ये जूता फैक्टरियां इस प्लास्टिक दाना को मशीन की सहायता से नया प्लास्टिक जूता बना देती थी)
रज्जन की फैक्ट्री भी ऐसी ही एक प्लास्टिक दाना बनाने की फैक्ट्री थी
गाड़ी की गाड़ी भरके टूटे हुए जूते आते थे
और रीसायकल करके उसे फिर से दाना बना देते थे
रज्जन अब तक बहन उर्मिला के घर पर ही रहता था
अब बहन के घर में रहना और खाना खाना भारत में अच्छा नहीं समझा जाता तो ये तय हुआ की
रज्जन हर महीने साठ रूपये बहन उर्मिला को देगा
ताकि ये दोष निकल जाए :)
पर अपना काम शुरू होने के चार-पाँच महीने बाद ही
रज्जन ने एक कमरा ,त्रिनगर की राशन दफ्तर वाली गली में किराये पे लिया
और सावी को अपने पास दिल्ली बुला लिया
सावी तो जैसे इसी दिन के लिए दुआएं कर रही थी
सावी ने इसी कमरे में अपने पहले बच्चे "पवन" को जन्म दिया
रज्जन ने इस ख़ुशी में आस-पड़ोस में बताशे बांटे ,
( मुश्किल से बताशे लायक ही पैसे थे उसके पास )
पर रज्जन और सावी इस कमी में भी बहुत खुश थे
जीवन मेहनत भरा था,
पैसा भी हाथ में कम था पर
कम से कम अब वो दोनों साथ थे
रज्जन का फैक्ट्री का काम तो ठीक चल रहा था
पर जब कई लोग मिलकर साझेदारी में कोई काम करते हैं तो अक्सर मतभेद हो ही जाते है
एक दिन जब ये मतभेद ज्यादा बढ़ गया तो सब अलग-अलग हो गए
रज्जन ने अब बिना किसी पार्टनर के अकेले अपनी दम खुद की जूता फैक्ट्री लगाने का मन बना लिया था
उसको लगा के प्लास्टिक दाना बनाने से भी ज्यादा मुनाफ़ा प्लास्टिक जूता बनाने में है
अकेले दम जूता फैक्ट्री लगाने में जोखिम बहुत ज्यादा था
सबने रज्जन को बहुत समझाया
कुछ ने तो मज़ाक भी उड़ाया
पर रज्जन ने हमेशा केवल अपने मन की ही सुनी
उसे करीब 10 हज़ार रूपये पूँजी की और आवश्यकता थी
तो सावी ने अपने सारे गहने दे दिए
रज्जन उन गहनों को अपने गांव के सुनार को गिरवी रख आया
विश्राम नगर में एक शेड किराए पे लेकर उसकी अपनी जूता फैक्ट्री शुरू हो गयी
उसने फैक्ट्री का नाम रखा "बंगाल फुटवियर"
( ये उसका बंगाल से प्रेम ही था की खुद उत्तरप्रदेश से सम्बन्ध रखते हुए उसने अपनी फैक्ट्री का नाम बंगाल फुटवियर रखा था
इस नाम की वजह से काफी लोगों को ये भ्रम भी हो जाता था की शायद वो बंगाली है :)
वो किसी को क्या बताता की बंगाल ने उसे क्या दिया था और फिर एक दिन कैसे उसका सब कुछ छीन भी लिया था )
शुरुआती परेशानियों के बावजूद उसकी फैक्ट्री ठीक ही चल रही थी
अब रज्जन को अकेले ही फैक्ट्री के सारे काम करने थे तो वो
सुबह जल्दी काम पे चला जाता और देर रात तक लौटता
जिस दिन रात पाली में भी काम होता तो वो रात को फैक्ट्री में ही रहता था
सावी भी यथासंभव उसकी मदद करती
रज्जन हर हफ्ते फैक्ट्री से तेल में चीकट ढेर दस्ताने घर लाता ,
जो मज़दूर मशीन पे काम करते हुए पहनते थे
सावी उन्हें गर्म पानी और साबुन में उबाल के धोती-सुखाती
ये दस्ताने फिर फैक्ट्री चले जाते ,इससे नए दस्ताने खरीदने के पैसे बच जाते थे
वो दोनों एक-एक पैसे को दांत से पकड़ते थे
इसी बीच सावी ने बेटी "ममता" को जन्म दिया
ममता के आने से अब रज्जन और सावी का घर खुशियों से भर गया था
बेटी ममता के साथ रज्जन का सौभाग्य भी साथ आया ,अब उसका काम पहले से काफी बेहतर था
और फिर उसके और ऐक साल बाद सावी अब फिरसे उम्मीद से थी
पर इस बार उसका स्वास्थ्य उसका साथ नहीं दे रहा था
लगभग रोज़ उसकी तबीयत खराब रहती थी
लोकल डॉक्टर कुछ बता नहीं पा रहे थे
एक प्राइवेट हॉस्पिटल में दिखाया तो पता चला की डिलीवरी में कुछ कॉम्प्लीकेशन्स हैं
पर उन्होंने जो खर्चा बताया वो रज्जन उठा नहीं सकता था
तो रज्जन ने सावी को लेडी हार्डिंग,
जो एक सरकारी हस्पताल था, उसमें दाखिल करा दिया
डॉक्टर के अनुसार अभी सावी की डिलीवरी में एक से डेढ़ महीना था
रज्जन के लिए फैक्ट्री का काम छोड़ के रोज़ हस्पताल आना-जाना संभव नहीं था
तो उसने भरे मन से सावी को कुछ पैसे दिए और कहा -
" सावी, मैं शायद रोज़ आ ना पाउ,
तुम ये पैसे रखो ,ताकि कोई जरुरत हो तो तुम्हे खुद ही ......"
सावी ने रज्जन के हॅसते हुए चेहरे पे आये दर्द को पढ़ लिया था
सब समझती वो,
उसने मुस्कुराते हुए पैसे ले लिए ,और बोली-
"आप जाओ, ईश्वर सब ठीक करेगा "
ये 1977 की जून की तपती गर्मी के दिन थे
रज्जन पिछले २ दिन से हस्पताल नहीं आया था
इधर सावी की तबीयत लगातार बिगड़ती जा रही थी
टेस्ट हुए तो पता चला के
सावी के गर्भ में जुड़वाँ बच्चे हैं
उसका कमज़ोर शरीर जुड़वा बच्चो को एक साथ सींच नहीं पा रहा था
डॉक्टरों ने ओप्रशन से डिलीवरी करने का फैसला किया
सावी को ओप्रशन के लिए ले जाया जा रहा था
सावी की व्याकुल आँखें हर तरफ बस रज्जन को ढूंढ रही थी
और रज्जन सावी की हालत से अनजान कहीं दूर
आज भी किसी जरूरी काम में फंसा हुआ था
डॉक्टर शालिनी ने ओप्रशन किया ,डिलीवरी तो हो गयी थी
पर ओप्रशन के बाद डॉक्टर शालिनी बहुत ग़मगीन थी
ओप्रशन के दौरान एक बच्चा स्वस्थ पैदा हुआ था पर दूसरा बच्चा .....
इधर सावी की हालत भी ठीक ना थी
उसे 107 बुखार था
और उसको बर्फ के पानी में पूरा शरीर डूबा कर छोड़ा हुआ था
और इस सब से अनजान रज्जन अब भी कहीं...
दोपहर को रज्जन की बहन उर्मिल और जीजा ओमप्रकाश जी तो ऐसे ही कैसुअली सावी का हाल-चाल लेने आये थे
उन्हें क्या पता था की क्या घट चुका था
हस्पताल ने उन्हें मरा हुआ एक बच्चा सुपुर्द कर दिया
ओमप्रकाश जी उस बच्चे को रज्जन के घर ले आये और
आँगन में बीचोबीच उस अखवार के पैकेट को रख दिया था
जिसके अंदर वो बच्चा था
दोनों नन्हें बच्चे पवन और ममता वहीं खड़े थे
हथपृथ से उस पैकेट को देख रहे थे
मुझे आज भी याद है वो एक पुराना सा अखवार था
जिसपर खून के निशान स्पष्ट दिख रहे थे
पता चलते ही रज्जन हस्पताल भागा
सावी के कमरे बाहर पंहुचा तो देखा
नर्स आसपास पूछताछ कर ही रही थी की सावी के साथ कौन है
अपने दुःख को सीने में दबाये
रज्जन हँसते चेहरे के साथ कमरे में घुसा तो
सावी रो-रो कर तेज आवाज़ में नर्सो से कह रही थी-
"मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है, मैं अकेली हूँ "
रज्जन जानबूझ कर नकली ठहाका लगाते हुए अंदर घुसा, बोला-
"मेरी सवी मैं आ गया हूँ
और कोई क्यों चाहिए तुम्हे ,मैं हूँ ना तुम्हारा "
और सवी,रज्जन के सीने में सर छुपाये
देर तक जाने क्या-क्या गिले-शिकवे करती रही
रज्जन अपने दुःख को सीने में दबाये सावी के बाल सहलाता हुआ
सावी को सांत्वना देता रहा
रज्जन बाहर आया तो
नर्स ने बताया की उसे डॉक्टर शालिनी से मिले बिना नहीं जाना
कोई बेहद जरूरी बात है।
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आखिर क्या थी वो जरूरी बात
क्या अभी कोई और पहाड़ भी टूटना बाकी था रज्जन के जीवन में ?
पढ़िए प्रवासी-6 में
कुछ ही दिन में
सब मिलकर नयी फैक्ट्री शुरू करने में जुट गए
वो एक प्लास्टिक दाना बनाने की फैक्ट्री थी
(ये 1973 की बात है ,उस समय बाटा और कई अन्य बड़ी कंपनियों के प्लास्टिक जूते तो आते ही थे ,पर गरीब ग्रामीण भारत के लिए जूते ज्यादातर त्रिनगर की स्थानीय जूता फैक्टरियों में ही बनते थे,
ये प्लास्टिक जूते सर्दी और बरसात दोनों में बहुत अच्छे रहते थे ,किसान पानी भरे खेत में यही जूते पहनते थे ,प्लास्टिक थी तो पानी में ये जूते खराब नहीं होते थे
शुरूआत में तो ये जूता दोनों पैरों का कॉमन होता था और साइज वैरायटी भी कम थी
मतलब लोग एक साइज ढीला या एक साइज टाइट जूता भी पहन लेते थे और किसी पैर में चाहे कोई भी जूता पहन लो,क्युकी सीधा-उल्टा जैसा कोई फ़र्क़ ही नहीं था :)
फिर जब ये जूते टूट जाते थे तो ग्रामीण भारत में लोग दूकानदार को टूटा हुआ जूता और कुछ पैसे देकर बदले में नया जूता ले लेते थे,ये टूटे हुए जूते इकठ्ठे करके फिरसे वापिस त्रिनगर दिल्ली प्लास्टिक दाना फैक्टरियों में आते थे,जहाँ उनकी मिटटी निकाली जाती,धोया जाता ,ग्राइंड किया जाता ,फिर कुछ केमिकल मिलाकर रीसायकल करके प्लास्टिक दाना बनाया जाता और फिर ये दाना ,जूता फैक्टरियों को बेच दिया जाता था,जहाँ ये जूता फैक्टरियां इस प्लास्टिक दाना को मशीन की सहायता से नया प्लास्टिक जूता बना देती थी)
रज्जन की फैक्ट्री भी ऐसी ही एक प्लास्टिक दाना बनाने की फैक्ट्री थी
गाड़ी की गाड़ी भरके टूटे हुए जूते आते थे
और रीसायकल करके उसे फिर से दाना बना देते थे
रज्जन अब तक बहन उर्मिला के घर पर ही रहता था
अब बहन के घर में रहना और खाना खाना भारत में अच्छा नहीं समझा जाता तो ये तय हुआ की
रज्जन हर महीने साठ रूपये बहन उर्मिला को देगा
ताकि ये दोष निकल जाए :)
पर अपना काम शुरू होने के चार-पाँच महीने बाद ही
रज्जन ने एक कमरा ,त्रिनगर की राशन दफ्तर वाली गली में किराये पे लिया
और सावी को अपने पास दिल्ली बुला लिया
सावी तो जैसे इसी दिन के लिए दुआएं कर रही थी
सावी ने इसी कमरे में अपने पहले बच्चे "पवन" को जन्म दिया
रज्जन ने इस ख़ुशी में आस-पड़ोस में बताशे बांटे ,
( मुश्किल से बताशे लायक ही पैसे थे उसके पास )
पर रज्जन और सावी इस कमी में भी बहुत खुश थे
जीवन मेहनत भरा था,
पैसा भी हाथ में कम था पर
कम से कम अब वो दोनों साथ थे
रज्जन का फैक्ट्री का काम तो ठीक चल रहा था
पर जब कई लोग मिलकर साझेदारी में कोई काम करते हैं तो अक्सर मतभेद हो ही जाते है
एक दिन जब ये मतभेद ज्यादा बढ़ गया तो सब अलग-अलग हो गए
रज्जन ने अब बिना किसी पार्टनर के अकेले अपनी दम खुद की जूता फैक्ट्री लगाने का मन बना लिया था
उसको लगा के प्लास्टिक दाना बनाने से भी ज्यादा मुनाफ़ा प्लास्टिक जूता बनाने में है
अकेले दम जूता फैक्ट्री लगाने में जोखिम बहुत ज्यादा था
सबने रज्जन को बहुत समझाया
कुछ ने तो मज़ाक भी उड़ाया
पर रज्जन ने हमेशा केवल अपने मन की ही सुनी
उसे करीब 10 हज़ार रूपये पूँजी की और आवश्यकता थी
तो सावी ने अपने सारे गहने दे दिए
रज्जन उन गहनों को अपने गांव के सुनार को गिरवी रख आया
विश्राम नगर में एक शेड किराए पे लेकर उसकी अपनी जूता फैक्ट्री शुरू हो गयी
उसने फैक्ट्री का नाम रखा "बंगाल फुटवियर"
( ये उसका बंगाल से प्रेम ही था की खुद उत्तरप्रदेश से सम्बन्ध रखते हुए उसने अपनी फैक्ट्री का नाम बंगाल फुटवियर रखा था
इस नाम की वजह से काफी लोगों को ये भ्रम भी हो जाता था की शायद वो बंगाली है :)
वो किसी को क्या बताता की बंगाल ने उसे क्या दिया था और फिर एक दिन कैसे उसका सब कुछ छीन भी लिया था )
शुरुआती परेशानियों के बावजूद उसकी फैक्ट्री ठीक ही चल रही थी
अब रज्जन को अकेले ही फैक्ट्री के सारे काम करने थे तो वो
सुबह जल्दी काम पे चला जाता और देर रात तक लौटता
जिस दिन रात पाली में भी काम होता तो वो रात को फैक्ट्री में ही रहता था
सावी भी यथासंभव उसकी मदद करती
रज्जन हर हफ्ते फैक्ट्री से तेल में चीकट ढेर दस्ताने घर लाता ,
जो मज़दूर मशीन पे काम करते हुए पहनते थे
सावी उन्हें गर्म पानी और साबुन में उबाल के धोती-सुखाती
ये दस्ताने फिर फैक्ट्री चले जाते ,इससे नए दस्ताने खरीदने के पैसे बच जाते थे
वो दोनों एक-एक पैसे को दांत से पकड़ते थे
इसी बीच सावी ने बेटी "ममता" को जन्म दिया
ममता के आने से अब रज्जन और सावी का घर खुशियों से भर गया था
बेटी ममता के साथ रज्जन का सौभाग्य भी साथ आया ,अब उसका काम पहले से काफी बेहतर था
और फिर उसके और ऐक साल बाद सावी अब फिरसे उम्मीद से थी
पर इस बार उसका स्वास्थ्य उसका साथ नहीं दे रहा था
लगभग रोज़ उसकी तबीयत खराब रहती थी
लोकल डॉक्टर कुछ बता नहीं पा रहे थे
एक प्राइवेट हॉस्पिटल में दिखाया तो पता चला की डिलीवरी में कुछ कॉम्प्लीकेशन्स हैं
पर उन्होंने जो खर्चा बताया वो रज्जन उठा नहीं सकता था
तो रज्जन ने सावी को लेडी हार्डिंग,
जो एक सरकारी हस्पताल था, उसमें दाखिल करा दिया
डॉक्टर के अनुसार अभी सावी की डिलीवरी में एक से डेढ़ महीना था
रज्जन के लिए फैक्ट्री का काम छोड़ के रोज़ हस्पताल आना-जाना संभव नहीं था
तो उसने भरे मन से सावी को कुछ पैसे दिए और कहा -
" सावी, मैं शायद रोज़ आ ना पाउ,
तुम ये पैसे रखो ,ताकि कोई जरुरत हो तो तुम्हे खुद ही ......"
सावी ने रज्जन के हॅसते हुए चेहरे पे आये दर्द को पढ़ लिया था
सब समझती वो,
उसने मुस्कुराते हुए पैसे ले लिए ,और बोली-
"आप जाओ, ईश्वर सब ठीक करेगा "
ये 1977 की जून की तपती गर्मी के दिन थे
रज्जन पिछले २ दिन से हस्पताल नहीं आया था
इधर सावी की तबीयत लगातार बिगड़ती जा रही थी
टेस्ट हुए तो पता चला के
सावी के गर्भ में जुड़वाँ बच्चे हैं
उसका कमज़ोर शरीर जुड़वा बच्चो को एक साथ सींच नहीं पा रहा था
डॉक्टरों ने ओप्रशन से डिलीवरी करने का फैसला किया
सावी को ओप्रशन के लिए ले जाया जा रहा था
सावी की व्याकुल आँखें हर तरफ बस रज्जन को ढूंढ रही थी
और रज्जन सावी की हालत से अनजान कहीं दूर
आज भी किसी जरूरी काम में फंसा हुआ था
डॉक्टर शालिनी ने ओप्रशन किया ,डिलीवरी तो हो गयी थी
पर ओप्रशन के बाद डॉक्टर शालिनी बहुत ग़मगीन थी
ओप्रशन के दौरान एक बच्चा स्वस्थ पैदा हुआ था पर दूसरा बच्चा .....
इधर सावी की हालत भी ठीक ना थी
उसे 107 बुखार था
और उसको बर्फ के पानी में पूरा शरीर डूबा कर छोड़ा हुआ था
और इस सब से अनजान रज्जन अब भी कहीं...
दोपहर को रज्जन की बहन उर्मिल और जीजा ओमप्रकाश जी तो ऐसे ही कैसुअली सावी का हाल-चाल लेने आये थे
उन्हें क्या पता था की क्या घट चुका था
हस्पताल ने उन्हें मरा हुआ एक बच्चा सुपुर्द कर दिया
ओमप्रकाश जी उस बच्चे को रज्जन के घर ले आये और
आँगन में बीचोबीच उस अखवार के पैकेट को रख दिया था
जिसके अंदर वो बच्चा था
दोनों नन्हें बच्चे पवन और ममता वहीं खड़े थे
हथपृथ से उस पैकेट को देख रहे थे
मुझे आज भी याद है वो एक पुराना सा अखवार था
जिसपर खून के निशान स्पष्ट दिख रहे थे
पता चलते ही रज्जन हस्पताल भागा
सावी के कमरे बाहर पंहुचा तो देखा
नर्स आसपास पूछताछ कर ही रही थी की सावी के साथ कौन है
अपने दुःख को सीने में दबाये
रज्जन हँसते चेहरे के साथ कमरे में घुसा तो
सावी रो-रो कर तेज आवाज़ में नर्सो से कह रही थी-
"मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है, मैं अकेली हूँ "
रज्जन जानबूझ कर नकली ठहाका लगाते हुए अंदर घुसा, बोला-
"मेरी सवी मैं आ गया हूँ
और कोई क्यों चाहिए तुम्हे ,मैं हूँ ना तुम्हारा "
और सवी,रज्जन के सीने में सर छुपाये
देर तक जाने क्या-क्या गिले-शिकवे करती रही
रज्जन अपने दुःख को सीने में दबाये सावी के बाल सहलाता हुआ
सावी को सांत्वना देता रहा
रज्जन बाहर आया तो
नर्स ने बताया की उसे डॉक्टर शालिनी से मिले बिना नहीं जाना
कोई बेहद जरूरी बात है।
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आखिर क्या थी वो जरूरी बात
क्या अभी कोई और पहाड़ भी टूटना बाकी था रज्जन के जीवन में ?
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