Thursday, May 21, 2020

प्रवासी,भाग-2

और फिर एक दिन भोर-अंधेरे रज्जन ने अपने सपनों की ट्रैन "कालका मेल" पकड़ ही ली

ये ट्रैन कालका मेल सन 1866 में पराधीन भारत में अंग्रेज़ सरकार के द्वारा
कलकत्ता से शिमला के बीच शुरू की गयी थी
उस समय अँगरेज़ सरकार अपना सारा राज-काज अपनी उस वक़्त की राजधानी कलकत्ता से चलाती थी
( यहाँ में आपको बता दूँ की कलकत्ता प्राचीन काल से ही भारत की आर्थिक राजधानी रहा है
अंग्रेज़ भी व्यापार के लिए सबसे पहले कलकत्ता ही आये थे ,
ये तो बाद में सन 1911 में उन्होंने दिल्ली को अपनी राजधानी बना लिया )

इधर इंग्लैंड की सर्द मौसम के आदी अंग्रेज़ अफसरों को
हर साल कलकत्ता की गर्मियों के 3 -4 महीने बहुत मुश्किल होती थी
तो उन्होंने अपनी गर्मियों की राजधानी शिमला को बना लिया
अब उनको यातायात के एक ऐसे साधन की आवश्यकता थी जो उनकी ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला
और शीतकालीन राजधानी कलकत्ता  को आपस में जोड़ सके
तो अंग्रेज़ सरकार ने अपनी दोनों राजधानियों के बीच,
अपने सारे सरकारी महकमे और तंत्र के साथ सफर करने के लिए खासतौर से ये ट्रैन चलाई
यहां तक की उस समय अँगरेज़ सरकार के वायसराय और सभी बड़े सरकारी अधिकारी भी
इसी ट्रैन कालका मेल से सफर करते थे
तो हम कह सकते हैं की कभी किसी जमाने में कालका मेल अँगरेज़ सरकार की दोनों राजधानियों को जोड़ने वाला एक पुल थी
और अब आजादी के बाद ये ट्रैन अखंड भारत के पूरे उत्तरी हिस्से को पूरे पूर्वी भारत से जोड़ने वाला सेतु बन गयी थी

इसी उत्तरी भारत के एक प्रदेश ,उत्तरप्रदेश के एक छोटे से रेलवे स्टेशन " खुर्जा जंक्शन" से,
इस ट्रैन के अँगरेज़ सरकार के द्वारा शुरू होने के के करीब 100 साल बाद
आज सन 1964 में एक भोर-अँधेरे 22 साल के एक युवक रज्जन ने भी
ये ऐतिहासिक पुल यानी सेतु कालका मेल पार कर लिया था
उस भोर जब उसने वो सेतु चढ़ा
तो उसके मन में हज़ार तरीके के सवाल थे
सैंकड़ों आशंकाये थी
ट्रैन में अपनी जगह बनाते-बनाने उसने देखा था की
हर तरफ एक रज्जन है
हर एक की आँखों में सुनहरे भविष्य के सपने हैं
हर एक, उसी की तरह एक थैला ,जिसमे शायद उसकी जीवन भर की पूंजी है ,
सीने से लगाए किसी कोने में दुबका,सहमा,सावधान सा बैठा है
हर एक की निगाहें हर दूसरे को अविश्वास और शंका से देख रही थी

दिन तो जैसे-तैसे बीत गया पर रात आते ही कई और अंदेशों  ने रज्जन के मन को घेर लिया था
अपनी अम्माँ के गहने बेचकर जो पूंजी उसने जुटाई थी
उस थैले को तकिये की तरह उसने अपने सिरहाने दबा रखा था
पर फिर भी उसके दोनों हाथ उस थैले से छूटते ही नहीं थे
हाथ जैसे चिपक गएँ हों उस थैले से
असुरक्षा की इस भावना को समझना बहुत मश्किल है
ऐसी कल्पना कीजिये की आप एक दिन अपना सब कुछ बेचकर
(सब कुछ मतलब सब कुछ ,घर,बिज़नेस,बैंक बैलेंस ,जेवेलरी इत्यादी इत्यादि सब कुछ बेचकर  )
उसे कॅश के रूप में एक कपडे के थैले में लिए
एक ट्रैन के थर्ड क्लास के कम्पार्टमेंट में
अकेले एक लम्बे सफर पर एक अनजान शहर की और जा रहे है
जहाँ ट्रैन सहयात्रियों से खचाखच भरी है
आपको नहीं पता इनमे कौन शरीफ है और कौन चोर,जेबकतरा या कोई उठाईगिरा है
और अब ऐसे में अगर कोई अनहोनी घट जाए तो
आप तो बिलकुल खाली

पर भगवान् का शुक्र है की ऐसा कुछ हुआ नहीं
पर सो कहाँ पाया था रज्जन
किसी अनहोनी की आशंका में सारी रात बस आँखों में ही निकाली थी
और अगले दिन सुबह करीब 9 बजे कालका मेल ने हावड़ा स्टेशन (कलकत्ता) के
प्लेटफार्म न०- 8 पर रेंगते हुए प्रवेश किया
प्लेटफार्म लोगों से खचाखच भरा हुआ था
सब लोग इधर से उधर , जाने किधर को भागे जा रहे थे
कानफाडू शोर था
कुछ ट्रैन का,
कुछ स्टेशन पे चीख-चीख कर सामान बेचते लोगों का,
कुछ शायद उन सैंकड़ों प्रवासी रज्जनों के जोर-जोर से धड़कते हुए दिलों का भी रहा होगा
जो अपना-अपना झोला कस के मज़बूती से दोनों हाथों से सीने के पास दबाये
रज्जन के साथ बस अभी-अभी कालका मेल से सपनों के शहर "कलकत्ता" पहुंचे थे

तभी पीछे से किसी ने रज्जन के कंधे पे हाथ मारा
रज्जन हड़बड़ाया, चौंका
"तू आखिर पहुँच ही गया "
ये रज्जन का दोस्त था, सुमेर
( ये सुमेर और रज्जन की दोस्ती अभी कुछ ही महीने पहले ही दिल्ली में हुयी थी
जब रज्जन दिल्ली,पहाड़ी धीरज अपनी छोटी बहन धनवती  के ससुराल कुछ दिन रहने गया था
वैसे तो सुमेर मूलतः मारवाड़ी था
पर उसका परिवार पिछले बीसियों सालों से कलकत्ता में ही रह रहा था )

सुमेर भी ,उन्ही दिनों अपने किसी रिश्तेदार के घर पहाड़ी धीरज,दिल्ली रहने आया हुआ था
दोनों हमउम्र थे और बहुत महत्वकान्षी भी
तो दोनों की जम गयी थी
और अब सुमेर के कहने पे ही रज्जन कलकत्ता चला आया था
दोनों दोस्त गले मिले
और सामान उठाकर स्टेशन से बाहर आ गए
जैसे ही "हाथ-रिक्शा" पे सामान रखा
रज्जन बोला - सुमेर इस गाड़ी को खीचेगा कौन ?
सुमेर बोला - "ये दादा खीचेगा और कौन ? "
(सुमेर ने नंगी छाती वाले एक बुजुर्ग मज़दूर की और इशारा किया)
( बंगाल में बड़े भाई को और किसी को भी सम्मान से बुलाने के लिए "दादा" बोलते हैं )
रज्जन का मुँह खुला का खुला रह गया,
वो बोला - "यानि यहाँ इंसान ही इंसान को ढोता है "
सुमेर हँस कर बोला - तू आगे-आगे देख और भी अजब गजब बातें हैं इस शहर की
(ये हाथ-रिक्शा आज भी कलकत्ता में चलते हैं, जिसमे एक इंसान जानवर की तरह गाड़ी में आगे की तरफ जुता होता है और पीछे सीट पे 2 -3 सवारियों को बिठाकर दौड़ता है, उन्हें उनके गंतव्य पर पहुंचता है  , ये हाथ गाड़ी आज भी कलकत्ता में चलती हैं )

रास्ते में रज्जन ने एक और अजूबा देखा "ट्राम "
( "ट्राम "छोटी सी रेल जैसी होती है, जिसकी पटरिया सड़क के बीचोबीच ही बनी होती हैं ,ये ट्राम सड़क पे कार,स्कूटर ,बसों के साथ-साथ ही चलती रहती है, ये भी आज भी कलकत्ता और दार्जीलिंग में चलती है )
अजूबों से भरे इस शहर को आँखे फाड़े देखते हुए रज्जन का हाथ-गाड़ी रुका
एक 8 मंज़िला आलीशान इमारत के सामने
सामने बोर्ड पे बड़े-बड़े शब्दों में बांग्ला और इंग्लिश में लिखा था
"मारवाड़ी मेंशन   "
सुमेर ने बताया की ये पूरी बिल्डिंग सुमेर के पिता की थी
और उस पल रज्जन को पहली बार पता चला की सुमेर कितने रईस घर का लड़का था

रज्जन ने हाथ-गाड़ी से सामान उतारा और उस बिल्डिंग की ऊंचाई को अपनी आँखों से नापता हुआ
सुमेर के पीछे-पीछे चलते हुए उस विशाल बिल्डिंग की चौथी मंजिल के
कमरा न0-44 में जाकर अपना सामान रखा
वो एक बहुत बड़ा कमरा था
जिसके एक अंदर वाले दूर के कोने में एक गद्दा बिछा हुआ था और एक सुराही रखी थी

सुमेर बोला-
"आज से तू यही रहेगा , नहाने-धोने की जगह वो वहाँ दूसरी तरफ है
और ये ले चाबियां "
(सुमेर ने उस लम्बे कॉरिडोर के दूसरे छोर की तरफ इशारा किया
और चाभियों का एक गुच्छा रज्जन को थमा दिया  )
" तू जाके हाथ-मुँह धो ले "
मैं नीचे से किसी के हाथ कुछ खाने को भेजता हूँ
बप्पा(पिताजी) ने घर बुलायो है तो मैं आके तुझसे बाद में मिलता हूँ "

रज्जन ने सुमेर को रोका ,अपना थैला खोला
उसमे बहुत नीचे जैसे किसी तहखाने में ,
कपड़ों के बीच छुपाया हुआ
एक पीतल का पिचका सा,पुराना डब्बा था
जिसमे रखी रोटी के बीच छुपाकर रखे हुए मुड़े-तुड़े कुछ रूपये उसने निकाले
और सुमेर के हाथ पे रख दिए
रज्जन- "संभाल के रख लियो भैया ,बस इतने ही हैं मेरे पास "
रज्जन ने उदास स्वर में कहा था
सुमेर के चेहरे पे एक अजीब सी मुस्कान थी
उसने वो रूपये जल्दी से जेब में रखे
और तेजी से नीचे चला गया
और रज्जन अपना बाकी सामान उस गद्दे के साथ रखी एक छोटी सी अलमारी के रख,
ताला लगा
सुमेर की दिखाई हाथ-मुँह धोने की जगह की और बढ़ गया
ये उसके प्रवासी जीवन का आज पहला दिन था कलकत्ता ,में।

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दोस्तों,
रज्जन के साथ कलकत्ता में क्या हुआ
ये २-३ दिन में प्रवासी,भाग-३ में  :)

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