Wednesday, May 20, 2020

प्रवासी,भाग-1

प्रवासी,
इन दिनों ये शब्द बार-बार सुनने में आता रहता है

मुझे नहीं पता ,आपको इस शब्द का सही अर्थ कितना पता है
पर मुझे ठीक से पता नहीं था
तो आज मैंने डिक्शनरी में देख ही लिया
डिक्शनरी कहती है ,

प्रवासी का अर्थ है -
"वो व्यक्ति,जो काम करने के लिए अपने प्रदेश से किसी दूसरे प्रदेश या देश में जाता है"

अर्थ देख एक बार को तो मैं हँसा
( इससे पहले की आप मुझे असंवेदनहीन माने , बता दूँ की आखिर क्यों हँसा था मैं )

"आखिर इन महानगरों में रहने वाले हम सब ही प्रवासी ही तो हैं
या कहूँ के प्रवासी परिवार से ही तो हैं"

शायद हमारी जनरेशन यहाँ दिल्ली में पैदा हुयी हो पर हम सबके माता-पिता तो
लगभग सब ही दिल्ली से बाहर ही पैदा हुए थे
लगभग सब ही हरियाणा,उत्तर प्रदेश,बिहार,राजस्थान,पंजाब या देश के किसी अन्य राज्य से काम की तलाश में ही दिल्ली आये थे

आज हम सब लोग चाहे विलासिता-वैभव के किसी भी मुकाम पर हों
पर हमारे उस विशाल महल की नींव में हमारे परिवार के ही
कम से कम एक प्रवासी व्यक्ति का जीवन संघर्ष ही तो है

" उसका अश्रु, रक्त, स्वेद से लथपथ, लथपथ , लथपथ जीवन "

हमने तो शायद इस सब वैभव के लिए कभी अपने परिवार के उस व्यक्ति को ठीक से धन्यवाद भी ना किया हो

( दुःख और ग्लानि से कहता हूँ, कम से कम मैं तो इस मूर्खता का घोर दोषी रहा हूँ :(  )

जरा सोचिये ,
अगर हमारे परिवार के उस प्रवासी व्यक्ति ने वो संघर्ष-पथ पार नहीं किया होता तो
शायद आज हम भी इन प्रवासी मज़दूरों की साथ ,कहीं
किसी राजमार्ग पर भूखे-प्यासे मीलों पैदल चल रहे होते
आतेजाते वाहनों से कुचले जा रहे होते
या फिर अपने गांव की ट्रैन के इंतज़ार में स्टेशनों के बाहर भूखे-प्यासे पड़े होते :(

ये एक कटु सत्य है की जो कोई भी व्यक्ति बहुत अच्छे से अपने  परिवार का पालन-पोषण अपने जन्मस्थान पर कर रहा होता है
वो कभी भी अपनी जड़ों से कटकर ,अपने घर-परिवार गांव को छोड़कर किसी अनजान शहर में काम करने जाता
केवल वो ही व्यक्ति अपना गांव छोड़ता है
जो अपने गांव में अपने परिवार का अच्छे से पालन नहीं कर पा रहा होता
या फिर उसके सपने बहुत बड़े हो
तो वो अपने बड़े सपनों को पूरा करने शहर आता है

और फिर  "प्रवासी" हो जाता है

ऐसा ही एक  "प्रवासी" था हमारी कहानी का नायक  "राजेंद्र "
रज्जन उत्तरप्रदेश में जहांगीरपुर गांव में 1942 में पैदा हुआ
पिता कभी बड़े जमींदार हुआ करते थे
पर समय का पहिया घूमा
जमींदारी ख़त्म हो गयी
और अब वो गांव में ही एक छोटी सी दूकान चलाते थे
गांव में इस तरीके की दुकानें रोज़मर्रा की जरुरत का लगभग हर सामान बेचती थी
किताब,कॉपी ,पेंसिल,खेती के छोटे औजार,लालटेन,सेल,साबुन,जूती ,नमक,तेल,साबुत मसाले इत्यादि इत्यादि
सब कुछ एक ही दूकान पे बिकता था
(रज्जन के लाला जी यानि पिताजी की दूकान भी ऐसी ही थी )
बस ज्यादातर दुकानों पे सब्जी और अनाज नहीं होता था
क्युकी तबके लोग सालभर का अनाज घर में ही इकठ्ठा करके रखते थे
और सब्जी अपने खेत से ले आते थे
वैसे सब्जी की अलग से कुछ दूकाने भी होती थी

दसवीं कक्षा में ही रज्जन ने अपनी दूकान के लिए होलसेल में सामान लेने दिल्ली आना शुरू कर दिया था
सदर बाजार दिल्ली
हर गांव से तब दसीओ "पैकर" भी इसी तरह सामान लेने दिल्ली आते थे

( पैकर ,वो व्यक्ति होते थे जो गांव की दुकानों से सामान का आर्डर लेकर दिल्ली से होलसेल बाज़ारों से वो सामान खरीदते थे और गांव की दूकान पे सप्लाई करते थे )
इन लोगों का असल नाम ही कहीं गुम हो जाता था और लोग इन्हे इनके अपने नाम से नहीं "पैकर" ही कहकर बुलाते थे:)

"पैकर" को "पैकर" क्यों ही बुलाते थे ये जानना भी इंटरेस्टिंग है
ये पैकर लोग सदर बाजार से सारा अलग-अलग तरह का सामन अलग-अलग दुकानों से खरीदते थे
फिर किसी सुरक्षित जगह पर बैठकर उस सामान को इस होशियारी से लूस करके बोरा पैक करते थे की
वो बोरा साइज में छोटे से छोटा बने और गिनती के टोटल भी कम से कम बोरे बने
ताकि फी बोरा भाड़ा,किराया,मज़दूरी झल्ली वाले को ,ट्रैन में ,टाँगे में कम से कम देना पड़े
:) सामान पैक करने की उनकी इसी होशियारी या कहें कलाकारी की वजह से उनको "पैकर" कहते थे

"पैकर" का काम बहुत ही ज्यादा मेहनत वाला था
सदर बाजार से सारा सामान खरीद कर,
लूस बोरा पैक कर
झल्ली पे सामान रखवा सदर बाजार रेलवे स्टेशन आना
-रेल में टीटी से  सेटिंग करके यात्री डब्बे में ही इतने बड़े-बड़े बोरों को भी रखना
अपने साथ ही बोरों को भी अपने गांव के पास के रेलवे स्टेशन तक लाना -
वहां से मिनी बस या टाँगे से अपने गांव की दूकानों तक ये बोरे लाना
और फिर गांव के दुकानदार को सारे बोरे माल सप्लाई करना

रास्ते में चोरों से, पुलिस से, टीटी से , जाने किन किन मुसीबतों का सामना करने और देने-दिलाने के बाद ये काम पूरा होता था
पैकर इस सारी मेहनत के एवज में सामान की कीमत का कुछ प्रतिशत गांव के दुकानदारों से लेते थे
पैकर ये काम सर्दी-गर्मी-आंधी-तूफ़ान रोज़ करते थे
उनका दिन रोज़ सुबह 4 बजे शुरू होता था और रात 12 बजे वो अपने घर वापिस पहुंच पाते थे
और फिर 4 घंटे के बाद
फिर अगला दिन और वही कार्य-चक्र फिर शुरू
सप्ताह के 6 दिन ये उनका यही कार्य नियम था
रविवार क्युकी दिल्ली के सदर बाजार में अवकाश होता था
तो उस दिन पैकर गांव के दुकानदारों से अपना रूपये-पैसे का हिसाब मिलाते थे
यही उनका जीवन ढर्रा था

रज्जन ,पैकर का कमीशन बचाने के लिए अक्सर अपनी दूकान का सारा सामान खुद ही लाता था
तो उसे भी हर 8 -10 दिन में खुद इसी पैकर वाली सारी प्रकिर्या से गुजरना होता था
जीवन सचमुच कठिन था, बहुत कठिन
खैर समय बीतता जा रहा था
और अब तक रज्जन काम के साथ-साथ पढ़ते हुए B. A. भी पास कर चुका था
अब गांव में गुजारा भी ठीक होने लगा था
पर रज्जन के सपने बहुत बड़े थे
और उसका ये छोटा सा गांव उसके सपनों का वजन उठा नहीं पा रहा था
उसे लगता था की उसके सपने तो किसी बड़े शहर में ही पूरे हो पाएंगे
कलकत्ता इसके लिए सबसे मुफीद शहर लगा था
उसका एक दोस्त सुमेर कलकत्ता में रहता था
और रज्जन को कलकत्ता आने के लिए कह रहा था

लाला जी (पिता) से तो अपना मन कहने में रज्जन को डर लगता था
तो उसने अम्मा (माँ) को कहा
अम्माँ ने जाने कैसे मनाया पर लाला जी को मना लिया
अब समस्या कुछ पैसे इंतज़ाम करने की थी
तो अम्मा ने अपने गहने बेच दिए
और अब रज्जन तैयार था प्रवासी बनने के लिए
और अम्माँ के बिक़े गहनों से मिले पैसे और
हज़ारों सुनहरे सपने आँखों में लिए
जिनमे से एक सपना वो भी था जो उसने बचपन में देखा था के

"मेरे लाला जमींदार थे,और मैं उन्हें फिर से जमींदार बनाकर रहूंगा "

और एक दिन भोर अँधेरे उसने अपने सपनों की ट्रैन "कालका मेल " पकड़ ही ली

आज रज्जन प्रवासी हो चला था।

(ये था कहानी  "प्रवासी " का भाग-१, अगला भाग-२ आने वाले कुछ दिनों में
  आखिर कैसा था रज्जन का कलकत्ता का प्रवासी जीवन और उसका संघर्ष )
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दोस्तों,
ये कहानी लिखना मेरे लिए कितना मुश्किल है
आपको कैसे बताऊ
पर मैं ये हर हाल में लिखूंगा
ताकि एक महान व्यक्तित्व का जीवन -संघर्ष संग्रहित हो सके। 

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