आप ऐसे ही रास्ते से किसी को भी उठा लाईं "
अनुज चिल्लाया था शारदा जी पर
उसने ये भी ध्यान नहीं किया की वो वहीं सामने खड़ी थी
और उसकी बात सुनकर और सहम गयी थी
बहुत समझाने के बाद भी जब अनुज नहीं माना
तो शारदा जी ने अपना फैसला सुना ही दिया
"देख अनुज कान खोल के सुन ले
सरला को मैं लाईं हूँ
अब वो यहीं रहेगी "
अनुज पैर पटकता हुआ
गाड़ी की चाबी लेकर घर से बाहर निकल गया
अब क्या बताती शारदा जी अनुज को
वो खुद भी तो लगभग सरला की उम्र में ही विधवा हो गयीं थी
तब अनुज एक साल का था
पति के अलावा उसका पहले से ही कोई ख़ास रिश्तेदार था नहीं तो
तब बिलकुल अकेली रह गयी थी वो
पति की दूकान चलाने में असफल रहने के बाद
आखिरकार उन्होंने दुकान बेच दी
पैसा बैंक में डाल दिया
और पिछले बीस साल से विधवा जीवन ही बिता रही थी
पिछले महीने शारदा जी गुरूजी के वार्षिक समारोह में वृन्दावन गयी थीं
सरला उनको पहली नज़र में ही भा गयी थी
नाम के जैसे ही सरल थी वो
गुरूजी के विधवा आश्रम में रहती थी
सरला जी के कमरे में सेवा की उसकी ड्यूटी थी
सरला ने पिछले एक महीने में शारदा जी की बेटी की तरह सेवा की थी
हालांकि पाँव दबाना उसकी ड्यूटी का हिस्सा नहीं था मगर
एक दिन शारदा जी को दर्द में देख सरला ने खुद ही रोज़
शारदा जी के पैर दबाने शुरू कर दिए थे
सरला को साथ लाने का ख्याल शारदा जी को खुद नहीं आया था
वो तो एक दिन साथ गयीं उनकी पड़ोसन शांति जी बोलीं थी
"शारदा देख कितनी प्यारी बच्ची है ये सरला
कहाँ होती हैं आजकल की लड़कियां ऐसी ?
ये विधवा ना होती तो
अपने अंकुर से ब्याह लेती मैं इसे "
(जैसे विधवा होने भर से सरला के सारे गुण ,अवगुण बन गए हों )
पहली बार शारदा जी ने आज सरला को गौर से देखा था
दिखने में भी ठीक ही थी वो
और सेवाभाव तो शारदा जी पहले ही देख चुकी थी
" अक्सर ही ऐसा होता है के
हमारे पास पड़ी किसी किसी चीज़ या व्यक्ति के गुण या अहमियत हमें
दूसरों के बताने पर ही ध्यान आतें हैं "
शान्ति जी की बात से एक ख्याल शारदा जी के मन में आ गया
और गुरूजी से आज्ञा लेकर वापिसी में वो सरला को अपने साथ
अपने घर ले आईं।
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