"क्यों ना उठा ले जाऊँ स्वीटी को अभी ?
या मार दूँ सतीश को ?
या स्वीटी को यहीं, इसी की शादी में ही बदनाम कर देता हूँ ?
स्वीटी मेरी है
सिर्फ मेरी
वो किसी और की नहीं हो सकती
कभी नहीं हो सकती "
अनिल अपने ही ख्यालों में गुम था
वो हड़बड़ा के उठा जब गोपाल जी ने पीछे से उसके कंधे पे हाथ रखा
और अपने किसी रिश्तेदार को अनिल से परिचित करा रहे थे
"मेहता जी , मिलो
ये है अनिल
मेरे दोस्त का भांजा है
संघर्ष करके कोई कैसे अपना जीवन बना सकता है
कोई अनिल से सीखे "
"आई ऍम प्राउड ऑफ़ यू माय सन "
"तुम स्वीटी की शादी में आये ,
मुझे बहुत अच्छा लगा "
गोपाल जी ने उसे हंसकर गले लगाते हुए कहा था
अनिल ने भी सर झुका कर गोपाल जी का आभार व्यक्त किया
और गोपाल जी के गले लगे-लगे ही फेरों के मंडप को देखा
फेरे पूरे हो चुके थे
दुल्हन के लिबास में प्रीति बहुत सुन्दर
बहुत पवित्र लग रही थी
एक आलोकिक आभा थी उसके चेहरे पर
स्वीटी को उस रूप में देखते ही अनिल के मन में आये सारे कलुषित विचार धुल गए थे
अनिल ने भरपूर नज़रों से स्वीटी को
आख़िरी बार देखा
जैसे भर लेना चाहता स्वीटी के इस रूप को,
अपनी आत्मा में
हमेशा के लिए
और भारी क़दमों से शादी के पंडाल से बाहर निकल गया
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कृपया आप मेरी और भी कहानियाँ और कवितायें पढ़ने के लिए मेरे ब्लॉग पर आये :)
manojgupta707.blogspot.com
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